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[१२७ यातुधानाः पिशाचाश्च त्वसुरा राबवास्तथा ।
मन्ति ते [] पक्षमनस्य मण्डलन विवर्जितम् ॥ १६५ ॥ अर्थात् बामणादिक को क्रमशः चतुष्कोण, त्रिकोण, गोल और अर्धचन्द्राकार मंडल बनाने चाहिये । मंडल के बिना भोवन की शक्ति को यातुधान, पिशाच, अमर और राक्षस देवता नष्ट कर डालते हैं।
ये दोनों श्लोक भी हिन्दू-धर्म से लिये गये हैं। पहले श्लोक को आन्हिकसूत्रावलि में 'ब्रह्मपुराण' का वाक्य लिखा है और दूसरे को 'स्मृतिरनाकर' में 'श्रात्रेय' ऋषि का वचन सूचित किया है और उसका दूसरा चरण 'ससुराधाथ राक्षसाः' दिया है, जो बहुत ही साधारण पाठभेद को लिये हुए है |
इस तरह भट्टारकजी ने हिन्दू-धर्म की एक व्यवस्था को उन्हीं के शब्दों में अपनाया है और उसे जैमन्यवस्था प्रकट किया है, यह बड़े हा खेद का विषय है । जैनसिद्धान्तों से उनकी इस व्यवस्था का भी कोई समर्थन नहीं होता । प्रत्युत इसके, नैनष्टि से, इस प्रकार के कथन देवताओं का अवर्णवाद करने वाले हैं-उन पर झूठा दोषारोपण करते हैं। जैनमतानुसार व्यन्तरादिक देवों का भोजन भी मानसिक है, वे इस तरह पर दूसरों के भोजन को चुराकर खाते नहीं फिरते और न उनकी शक्ति ही ऐसे निःसत्व काल्पनिक मंडलों के द्वारा रोकी जा सकती है। अतः ऐसे मिथ्यात्वषर्षक कथन दूर से ही त्याग किये जाने के योग्य है।
x दूसरे श्लोक का एक रूपान्तर भी 'मार्कराशेयपुराण' में पाया जाता है और यह इस प्रकार है
यातुधानाः पिथाचाच कायेव तु राक्षसार हरस्ति रखमचं च मंडलेन विवर्जितम् ।।
--मान्दिकस्त्रावलि ।