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[११] गया है। हिंदुओं के 'स्मृतिरनाकर' ग्रंथ में यह लोक बिलकुल ज्यों का त्यों पाया जाता है, जि अन्तिम चरण का मेद है। चंतिमवरण यहाँ 'नरकेषु निमजति' (मरकों में पड़ता है) दिया है। बहुत सम्भव है महारानी ने इसी प्रतिमचरण को बदल कर उसके स्थान में 'अन्ते नैव स्मरोबिनम्' बनाया हो। यदि ऐसा है सब तो इस परिवर्तन से इतमा पर पुआ है कि कुछ सथा कम हो गई है। मही तो बेचारे को, सात बम तक दरिदी रहने के सिवाय, नरकों में और भाना सता !! परंतु इस पद्य का एक दूसरा रूप भी है जो महत चिंतामणि की पीयपधारा टीका में पाया जाता है। उसमें और सब बातें खो ज्यों की त्यों है, सिर्फ अनिघाय मुखे' की जगह 'अशा.
साविधिना' (शासविधि का अधन करके) पद का प्रयोग किया गया है और पतिम चरण का रूप अन्ते विष्णुं न संस्मरे (अंत में उसे विष्णु भगवान् का स्मरण नहीं होता ) ऐसा दिया है। इस अंतिमयरस पर से मशरकनी के उक्त चरण का रचा जाना और भी ज्यादा स्वाभाविक तथा संभावित है। हो सकता है महारानी के सामने हिन्दू-मंथों के ये दोनों के पथ रहे हों और उनोंने उन्हीं पर से अपने पद का रूप गढ़ा हो। परंतु कुछ भी हो, इसमें संदेह नही कि नासिद्धान्तों के विरुद्ध होने से उनका यह सब कपन नियों के द्वारा मान्य किये जाने के योग्य नहीं है।
जनेऊ की अजीव करामात ।
(10) 'यज्ञोपवीत ' नामक अध्याय में, महारानी में बनेऊ की करामात का जो वर्णन दिया है उससे मालूम होता है कि यदि किसी को अपनी आयु बढ़ाने की अधिक होने की बया हो तो उसे दो या तीन जनेऊ अपने गले में गल देने चाहिये-पायु मह जायगी