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[११] हिन्दुओं से एक कदम और भी आगे बढ़े हुए मालूम होते हैं उन्होंने
वार्षिक सेवकों के धोए हुये बों को ही तिरस्कृत नहीं किया, बल्कि पहले दिनके खुद के धोए हुये पयों को भी तिरस्कृत किया है। श्राप लिखत है 'अधीत (बिना धाया हुआ), काव-धीत (शिल्पि शवों का धोया दुमा) और पूर्वपुर्धात (पहले दिन का धोया हुआ) ये तानों प्रकार के वक सर्व कार्यों के अयोग्य है किसी भी काम को करते हुये इनका व्यवहार नहीं करना चाहिये । यथा
अघौत कारुधीनं या पूर्वाधातमेव च।
अयमेतदसम्बंधं सर्वकर्मसु वर्जयेत् ।। ३१ ।। पाठकगण | देखा, इस बम का भी कहीं कुछ ठिकाना है ।। मालूम नहीं पहले दिन धोकर बहतियात से रक्खे हुए कपड़े भी अगले दिन कैसे बिगड़ जाते है। क्या हवा लगकर खराब हो जाते हैं या घरे घरे घुस जाते हैं । और जब वह पहले दिन का पोया हुआ वस्त्र अगले दिन काम नहीं पा सकता तो फिर प्रात: संध्या भी कैसे हो सकेगी, जिसे गहारकनी ने इसी अध्याय में सूर्योदय से पहले समात कर देना लिखा है ! क्या प्रातःकाल उठकर धोये हुए वस्त्र उसी वक्त सूख सकेंगे, या गोले पत्रों में है। संध्या करनी होगी ! खेद है महारकजी ने इन सत्र वालों को कुछ भी नहीं सोचा और न यही खयाल किया कि ऐसे नियम से सण्य का कितना दुरुपयोग होगा! सच है वहम की गति बड़ी ही विचित्र है-उसमें मनुष्य का विवेक बेकार सा शेजाता है। उसी घहम का यह भी एक परिणाम है जो महारकजी ने प्रधौत के लक्षण में शुदधीत आदि को शामिल करते हुये भी यहाँ कारबीत' का एक तीसरा भेद अलग वर्णन किया है। अन्यथा, शवधीत और चेटकौत से गिन कारधीत' कुछ भी नहीं रहता । अधौत के लक्षण की मौजूदगी में उसका प्रयोग विनफुल व्यर्थ और खालिस वहम जान पड़ता है। इस प्रकार के यहां से यह गंध बहुत कुछ भरा पड़ा है।