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[ ११२] पति के विलक्षण धर्म ।
· ( १२ ) आठवें अध्याय में, गर्मिणी स्त्री के पति धर्मों का वर्णन करते हुए, भट्टारकजी लिखते हैं---
पुंसो भार्या गर्मियी यस्य चासी सुनोचीलं क्षौरकर्मात्मना । गेद्दारंभ स्तंभसंस्थापनं च वृद्धिस्थानं दूरयात्रां न कुर्यात् ॥८६॥ शवस्य वाहनं तस्य दहनं सिन्धुदर्शनम् । पर्वतारोहणं चैव न कुर्याद्रर्मिणीपतिः ॥ ८७ ॥
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अर्थात् — जिस पुरुष की स्त्री गर्भवती हो उसे (उस स्त्री से उत्पन्न ) पुत्र का चौलकर्म नहीं करना चाहिये, स्वयं हजामत नहीं बनवानी चाहिये, नये मकान की तामीर न करनी चाहिये, कोई खंभा खड़ा न करना चाहिये, म वृद्धिस्थान बनाना चाहिये और न कहीं दूर यात्रा को ही जाना चाहिये । इसके सिवाय, वह मुर्दे को न उठाए, न उसे जलाए, न समुद्र को देखे और न पर्वत पर चढ़े।
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पाठकगण ! देखा कैसे विलक्षण धर्म है !! इनमें से दूरयात्रा को न जाने भैंसी बात तो कुछ समझ में भा भी सकती है परन्तु गर्मावस्था पर्यंत पति का हजामत न बनवाना, कहीं पर भी किसी नये मकान की रचना अथवा वृद्धिस्थान की स्थापना न करना, समुद्र को न देखना और पर्वत पर न चढ़ना जैसे धर्मों का गर्भ से क्या सम्बन्ध है और उनका पालन न करने से गर्म, गर्भिणी अथवा गर्भिणी के पति को क्या हानि पहुँचती है, यह सब कुछ भी समझ में नहीं आता । इन धर्मों के अनुसार गर्भिणी के पति को भाठ नौ महीने तक नख-केश बढ़ाकर रहना होगा, किसी कुटुम्बी अथवा निकट सम्बन्धी के मरजाने पर आवश्यकता होते हुए भी उसकी रथी को कन्धा तक न लगाना होगा, वह यदि, बम्बई जैसे शहर में समुद्र के किनारे तट पर रहता है तो उसे वहाँ का अपना वासस्थान छोड़ कर अन्यत्र जाना होगा अथवा
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