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श्रीखों पर पट्टी बाँध कर रहना होगा जिससे समुद्र दिखाई न पले, वह निकट की ऐसी तीर्थयात्रा भी नहीं कर सकेगा जिसका पर्वत-कूटों से सम्बंध हो, और अगर वह मंसूरी - शिमक्षा जैसे पार्षतथि प्रदेशों का रहने माता है तो उसे उस वक्त उन पर्वतों से नीचे उत्तर आभा होगा, क्योंकि वहाँ रहते तथा कारोबार करते वह पर्वतारोहण के दोष से बच नहीं सकता । परन्तु ऐसा करना कराना, श्रथवा इस रूप से प्रवर्तना कुछ भी इष्ट तथा युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । जैनसिद्धान्तों तथा जैनों के भाचार-विचार से इन धर्मों की कोई संगति ठीक नहीं बैठती और न ये सब धर्म, जैनदृष्टि से, गर्मिणोपत्ति के कर्तव्य का कोई आवश्यक भग जान पड़ते हैं । इन्हें भी महारकत्नी ने प्रायः हिन्दू-धर्म से लिया है। हिन्दुओं के यहाँ इस प्रकार के कितने ही कोक पाये जाते हैं, जिनमें से दो श्लोक शब्दकल्पद्रुमकोश से नीचे उद्घृत किये जाते हैं" क्षीरं शषानुगममं मचतनं च युद्धादिवास्तुकरणं त्यतिदूरधानं । बज्राहमीपनयनं जलधेय गाहमायुः क्षषार्थमिति यर्मिणिकापतीसाम् ॥” - मुहसंदीपिका ।
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"दहनं वपनं चैष चौखं वै गिरिरोहसम् ।
नाव बारोहणं चैव पयेर्निकीपतिः ॥"
रखडे, मालवः । इनमें से पहले श्लोक में चोर (हथामत) आदि कमों को जो गर्भिणी के पति की आयु के क्षय का कारण बतलाया है वह चैनसिद्धांत के विरुद्ध है। और इसलिये हिंदू-धर्म के ऐसे कृत्यों का अनुकरण करना जैनियों के लिये श्रेयस्कर नहीं हो सकता जिनका उद्देश्य तथा शिक्षा बैन-सत्यज्ञान के विरुद्ध है। उसी उद्देश्य तथा शिक्षा को लेकर उनका अनुष्ठान करना, निःसंदेह, मिध्यात्व का वर्धक है । खेद है महारकमी मे इन सब बातों पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और वैसे ही बिना सोचे समझे अपना हानि-नाम का विचार किये दूसरों को न कर बैठे !!