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[ १२४] प्रासन की अनोखी फलकल्पना।' • (१३) तीसरे अध्याय में, संध्योपासन के समय चारों ही आश्रम वालों के लिये पंचपरमेष्ठी के जप का विधान करते हुए, महारकजी ने कुछ पासनों का जो फज वर्णन किया है उसका एक श्लोक इस प्रकार है:
शासने परिवः स्यात्पाषाणे ब्याधिपीडितः । धरणां दुबसंभूतिर्भािग्य दारुकासने ॥ १०७ ॥ इस श्लोक में यह बताया गया है कि (नप के समय) बॉस के आसन पर बैठने से मनुष्य दरिद्री, पाषाण के आसन पर बैठने में व्याधि से पीड़ित, पृथ्वी पर ही आसन बगाने से दुःखों का उत्पन्न-कर्ता और काष्ठ के आसन पर बैठने से दुर्भाग्य से युक्त होता है। · भासन की यह फलकल्पना बड़ी ही अनोखी जान पड़ती है ।मालूम नहीं, महारकजी ने इसका कहाँ से अवतार किया है । प्राचीन ऋषिप्रणीत किसी मी जैनागम में तो ऐसी फल-व्यवस्था देखने में भाती नहीं । प्रत्युत इसके, ज्ञानार्णव में योगिराज श्रीशुमचंद्राचार्य ने यह स्पष्ट विधान किया है कि 'समाधि (उत्तम मान) की सिद्धि के लिये काष्ठ के पद पर, शिलापट्ट पर, भूमि पर अथवा रेत के स्थल पर मुद्ध आसन लगाना चाहिये। यथाः
, दारुप शिलापहे भूमौ वा सिंकतास्थले। • समाधिसिद्धये धीरो विवध्यात्मुस्थिरासनम् ॥ २८॥
पाठकगण | देखा, निन काष्ठ, पाषाण तथा भूमि के श्रासनों को योगीश्वर महोदय ने समाधि जैसे महान कार्य के लिये अत्यंत उपयोगी-- 'उसकी सिद्धि में खास तौर से सहायक बताया है उन्हें ही महारकली क्रमशः दौर्माग्य, व्याधि और दुःख के कारण ठहराते हैं ! यह कितना विपर्यास भय भागम के विरुद्ध कथन है। उन्हें ऐसा प्रतिपादन करते हुए इतना मी स्मरण न हुआ कि इन भासनों पर बैठकर असंख्य योगीजन सद्गति
पवा कल्याण-परम्परा को प्राप्त हुए हैं। प्रस्तु; हिन्दूधर्म में भी इन बासनों