________________
[११७] होने के योग्य बनाना अथवा अपनी संसार यात्रा का सुख पूर्वक निर्वाह करने की क्षमता पैदा कराना और साथ ही उसमें सत्य, प्रेम, धैर्य, उदारता, सहनशीलता तथा परोपकारता आदि मनुष्योचित गुणों का संचार कराके उसे देश, धर्म तथा समाज के लिये उपयोगी बनाना । और यह, सब तभी हो सकता है जबकि ब्रह्मचर्याश्चम के काल को गृहस्थाश्रम का काम न बनाया जावे अथवा विवाह जैसे महल तथा जिम्मेदारी के कार्य को एक खेल या तमाशे का रूप न दिया जाप, जिसका दियाजाना नाबालिगों का विवाह रचाने की हालत में नहर समझा जायगा । खेद है भट्टारकजी ने इन सब बातों पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और वैसे हो दूसरों की देखादेखी उटपटांग लिख मारा जो किसी तरह भी मान्य किये जाने के योग्य नहीं है।
नन की विचित्र परिभाषा। (१०) तीसरे अध्याय में, बिना किसी पूर्वापर सम्बन्ध अथवा नरू रत के, 'नग्न' की परिमापा बतलाने को ढाई लोक निम्न प्रकार से दिये हैं
अपवित्रपटो नो नमश्चार्षपटा स्मृतः। नमेव मनिनोद्वासी मनः कौपीनपानपि ॥२१॥ कपायवाससानो नश्वानुत्तरीयमान् । अन्ताकच्छो वहिकच्छो मुचकच्चस्तथैव च ॥२२॥ ' .
सामान ख विशेयो दस नमः प्रकीर्तिता। - इन छोकों में भट्टारकजी ने दस प्रकार के मनुष्यों को नग्न बतलाया है-अर्याद, जो लोग अपवित्र बच पहने हुए हों, भाषा वज पहने हो, मैले कुचले यस पहने हुए हों, लंगोटी लगाए हुए हों, भगवे वस्त्र पहने हुए हों, महज़ धोती पहने हुए हो, मीतर काच लगाए हुए हों, बाहर कच्छ लगाए हुए हों, कच्छ बिलकुल न लगाए हुए हों, और पक्ष से विशकुल रहित हों, उन सब को 'भग्न' ठहराया