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[ ११५ 1 नरकालय में वास ।
(१) शायद पाठक यह सोचते हों कि कन्या यदि विवाह से पहले रजस्वला हो जाती है तो उसमें कन्या का कोई अपराध नहीं - वह अपराध तो उस समय से पहले उसका विवाह न करने वालों का है जिन्हें कोई सजा नहीं दी गई और बेचारी कन्या को नाइक शूद्रा (वृषली ) करार दे दिया गया ! परंतु इस चिंता की बरूरत नहीं, महारकजी ने पहले ही उनके लिये कड़े दण्ड की व्यवस्था की है और पीछ कन्या को शूद्रा ठहराया है । व्याप उक्त पद्य से पूर्ववर्ती पद्म में ही लिखते हैं कि यदि कोई अविवाहिता कन्या रजस्वला हो जाय तो समझ लीजिये कि उसके माता पिता और भाई सब नरकालय में पदे – अर्थात, उसके रनस्वला होते ही उन सब के नरकवास की रजिस्ट्री हो जाती है— शायद नरकायु बँध जाती है और उन्हें नरक में जाना पड़ता है । यथाः
नसंस्कृता तु या कन्या रजसा वेत्परिप्लुता ।
भ्रातरः पितरस्तस्पाः पतिता नरकालये ॥ १६५ ॥ पाठकगण | देखा, कितना विलक्षण, भयंकर और कठोर मॉर्डर है ! क्या कोई शाखा पडित जैन सिद्धान्तों से --- जैनियों की कर्म फिलॉसॉफी से इस ऑर्डर अथवा विधान की संगति ठीक बिठला सकता है ! अथवा यह सिद्ध कर सकता है कि ऐसी कन्याओं के माता पिता और भाई अवश्य नरक जाते हैं ? कदापि नहीं । इसके विरुद्ध में सम्प प्रमाण नैनशाखों से ही उपस्थित किये जा सकते हैं। उदाहरण के लिये, यदि भट्टारकजी की इस व्यवस्था को ठीक माना जाय तो कहना होगा कि ब्राह्मी और सुन्दरी कन्याओं के पिता भगवान ऋषभदेव, माताएँ यशस्वती ( नंदा ) तथा सुनंदा और भाई बाहुबलि तथा भरत चक्र
* यदि उनमें से पहिले कोई स्वर्ग चले गये हों तो क्या उन्हें मी खिंच कर पीछे से नरक में जाना होगा ? कुछ समझ में नहीं आना !