________________
[३१] गित्यं नैगिधिक रनॉन क्रिया मलकंर्पणम् ।। तीर्थामा तु तिन्यमुध्योर्दिकपद "यमः। कुनिमाविक जाने शीतादिकाम्यमेव च।' निमय याविषयथासविसमाचरेत् । चंद्रिका
- इति ईस्मृतिरनाकरे ... । • भट्टारकी ने अपने वक्त पद्य से पहले 'पापा स्वभावता शुद्धा नाम का जो पच गर्म जल से मान की प्रशंसा में दिया है अथों से उठाकर रक्खा है। स्मृतिरनाकर मैं, वसाधारण से पाठभेद के साप, प्रायः ज्यों का स्खों पाया जाता है और उसे पातुरविषयक-रोगी तयों अशक्तों के मान सम्बंधी-सूचित किया है, जिसे भटाएकनी ने शायद नही समझा और वैसे ही अगले पथ में समूचे गृहस्नान के लिये सदा को ॐडे जल का निषेध कर दिया। -- ..
। शवत्वं का अदभुत योग । " (६) दूसरे अध्याय में, स्नान का विधान करते हुए, महारकानी लिखते है कि जो गृहस्पं सात दिन तक जल से स्नान नहीं करता पाइ शूद्गत्व को प्राप्त हो जाता है-शूद्र बन जाता है । यथाः-- : : सप्ताहान्यम्मसाऽखायी गृही प्रदत्वमाप्नुयात् ॥ ७॥ . ... शुदल के इस भादमुल योग प्रणा हल विधान को देखकर बड़ा
आश्चर्य होता है और समझ में नहीं आता कि एक ब्राह्मण, क्षत्रिय न्या-वैश्य महज़ सात दिन के खान न करने से कैसे शूद्र बन जाता हैं।
वह पाठभेव 'शुद्धा की जगह मेध्याः ' वन्हितापिता की जगह वन्हिसंयुना और अतः' की जगह 'तेन इतना ही है जो कुछ माप-भव नहीं रखता