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[१११] है जो सध्याकाल, प्राप्त होने पर भी संध्या नहीं करता है। पया:
सपाकाले तु सम्मा सन्ध्यां नैवमुपासते। . जीवमानो भवेच्छद्रः मृतः ज्वा चैष जायते ॥ १४ ॥
यहाँ भी पूर्ववत् शुद्रत्व का अंद्भुत योग किया गया है और इस से यह भी ध्वनित होता है कि शुद्ध को संध्योपासन का अधिकारी नही समझा गया । परन्तु यह हिन्दूधर्म की शिक्षा है जैनधर्म की शिक्षा नहीं। बैनधर्म के अनुसार शूद्र संध्योपासन के अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता । जैनधर्म में उसे नित्य पूजन का अधिकार दिया गया है पह त्रिसंध्या-सेवा का अधिकारी है और ऊँचे दर्जे का प्रामक हो सकता है। इससे सोमदेवसरि तथा पं० श्राशाघरनी ने मी भाचारादि की शुद्धि को प्राप्त हुए शूद्र को प्रामाणादिक की तरह से धर्मक्रियामों के करने का अधिकारी बतलाया है। जैसाकि उनके निम्न वाक्यों से प्रकट है--
"भाबागऽनषद्यत्वं शुचिपकार शरीरशुद्धिय करोति खा. मपि देवद्विजातिपरिकर्मसु योग्यान ।" . जातिवाक्यामृत ।
"अयशवस्याप्याहाराविधिमतो मासायाविषयमक्रियाकारित पोषितमनुमन्यमाना माह- ...
• छनोभयुपस्कराचारवपुष्शयास्तु साहय।। . चाया होनापिकासाविलम्बी बागास्ति धर्ममा ।"
-सागारधर्मास्व सटीक इसके सिवाय, महारकजी ऊपर सद्धृत किये हुए पथ में० १४२ में जब स्वयं यह बतक्षा चुके हैं कि शन्द्र भी जैन धर्म का पालन करने में 'परम समर्थ है तो फिर के संध्योपासन कैसे नहीं कर सकते !
प्रद्रों के इस सब अधिकारको अच्छी तरह से मारने के लिये देखक की लिखीपुर : जिनुपजाधिकार-मीमांसा मामक पुस्ताको देखना चाहिये।