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• अग्लानिर्भवति च गुरौ मार्गचे शोकयुक्त -स्वैताभ्यंगासननमरणं सूर्य दीर्घमायुः ॥ ॐ सम्वापः कीर्तिरल्पायुर्धनं निधन . श्रारोग्यं सर्वकामातिरांगाद्भास्करादिषु ॥
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इनमें से पहला पथ' ज्योतिःसारसंग्रह' का और दूसरा 'गारुड के ११४ वे अध्याय का पथ है । दोनों में परस्पर कुछ अन्तर भी है-पहले पैच में बुध के दिन तेल मलने से पुत्र लाभ का होना बतलाया हैं तो दूसरे में धनका होना लिखा है और यह घनका होना भट्टारकजी के पद्य के साथ साम्य रखता है; दूसरे में शनिवार के दिन संर्वकामार्त (इच्छाओं की पूर्ति) का विधान किया है तो पहले में दीर्घायु होना' लिखा है और यह दीर्घायु होना भी महारकनी के पंथ के साथ साम्यै रखता है। इसीतरह शुक्रवार के दिन तेसमर्थन का फल एक में सिंग्ये तो दूसरे में ' शोकयुक्त' बतलाया हैं और महाराजी उसे विद्यनाश लिखते है जो शोक का कारण हो सकता है; 'रविवार और गुरुवार का फेश दोनों में समान है परन्तु मंहारकों के पथ में वह कुछ मित्र है और सोमवार या मंगल को तेल कमाने का फल तीनों में समान है *चैस्तु;‘इन पद्य के सामने याने से इतना तो स्पष्ट हो जाती हैं कि इस तेलमर्दन के फल का कोई एक नियम नहीं पाया जाता हो जिसकी जो भी में आया उसने वह फल अपनी रचना में कुछ विशेषता अथवा रंग लाने के लिये, एक दूसरे की देखा देखी घडी है - बहुत संभव हैं महारकजी ने हिन्दू ग्रंथों के किसी ऐसे ही यह मनुसरण शिया हो. अपना जरूरत बिना जरूरत उसे कुछ बंद कर या व्यों का स्यों ही उठाकर रख दिया हो । परंतु कुछ भी हो, 'इसमें संदेह नहीं कि उनका उक्त पक्ष सैद्धांतिक दृष्टि से जैनधर्ग के विरुद्ध है, और जैनाचारविचार के साथ कुछ सम्बं नहीं रखता । --