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[२] परंतु भट्टारकानी मे सिद्धपूजनादि की ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की। आपने व्यवस्था की है जलदेवताओं की गंध, अक्षत, पुष्प तथा फों से पूजा करने की, घर में वेदी बना कर उसमें गृहदेवता+ की स्थापना करचे तथा दीपक मनाने आदि रूप से उसकी पूजा करने की, पंचमंडल और नवग्रह देवताओं के पूजन की, अघोरमंत्र से होम करने की और नागदेवताओं को बलि देने आदि की; जैसा कि आपके निम्न वाक्यों से प्रकट है
"फलगन्धाक्षतः पुष्पैः सम्पूज्य जलदेवताः।" (६१) "पेद्यो गृहाधिदेवं संस्थाप्य दीप प्रज्वालयेत् ।" (६३) "पुण्याहवाचनां पश्चात्पश्चमण्डल पूजनम् । गवानां देवतानां च पूजनं च यथाविधि ॥ १३३ ॥ वथैवाऽधोरमंत्रेण होमश्च समिधाधुतिम् । लाजाहुति पथूहलायेन च घरेश व " ५.१३४ ॥ "शुभे मंडपे दक्षिणीकृत्य तं वै प्रदायाशु नागस्य साक्षावाल
च" (१६४) इससे साफ जाहिर है कि त्रिवर्णाचार का यह पूजन-विधान आदिपुराण-सम्मत नहीं किन्तु भगवज्जिनसेन के विरुद्ध है। रही मंत्रों की बात, उनका प्रायः वही हाल है जो पहले लिखा जा चुका हैश्रादिपुराण के अनुसार उनकी कोई व्यवस्था नहीं की गई । हाँ, पाठकों
+ सोनीजी ने 'गृहाधिदेव' को “ल देवता " समझा है परन्तु यह उनकी भूल है, क्योंकि भारकजी ने चौथे अध्याय में कुल देवता से देवता को अलग पतक्षाया है और उसके विश्वेश्वरी, भरणेन्द्र, श्रीदेवी तथा कुबेर ऐसे पार भेद किये हैं। यथा
विश्वेश्वरीपराधीशश्रीदेवीधनदास्तथा। गृहलक्ष्मीकरा शेयावतुर्षा घेश्मदेवता ॥ २० ॥