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सत्र कुन निवासं श्वशुगलये । चतुर्थदिनमत्रैव केचिदेवं वदन्ति हि ॥ १७३ ॥
" विवाहानन्तरं गच्छेत्सभार्यः स्वस्य मन्दिरम् । यदि ग्रामान्तरे तत्स्यात्तत्र यानेन गम्यते ॥ १७८ ॥ x स्नानं सतैलं तिलमिथकर्म, प्रेतानुपानं फरकप्रदानम् ।
अपूर्वतीर्थामरदर्शनं च विवर्जयेन्मङ्गताऽध्दमेकम् ॥१८॥ इससे स्पष्ट है कि भट्टारकजी का यह सब कथन ध्यादिपुराण के बिलकुल विरुद्ध है और उनकी पूरी निरंकुशता को सूचित करता है। साथ ही इस सत्य को और भी उजाल देता है कि श्री जिनसेनाचार्य के वचनानुसार कथन करने की आपकी सत्र प्रतिज्ञाएँ ढोग मात्र हैं ! आपने उनके सहारे अथवा छल से लोगों को ठगना चाहा है और इस तरह पर धोखे से उन हिन्दू संस्कारों - क्रियाकाण्डों- तथा भाचार विचारों को समाज में फैलाना चाहा है जिनसे आप स्वयं संस्कृत थे अथवा जिनको आप पसंद करते थे और जो जैन आचार-विचारों श्रादि
* इस पथ में, विवाह के बाद अपूर्व तीर्थ तथा देवदर्शन के निषेध के साथ एक साल तक तेल मलकर स्नान करने, तिलों के उपयोग वाला कोई कर्म करने, मृतक के पीछे जाने और करक (कम
ब्लु आदि) के दाम करने का भी निषेध किया है। मालूम नहीं इन सबका क्या हेतु है । तेल मलकर नहा लेने आदि से कौनसा पाप चढ़ता है ? शरीर में कौनसी विकृति भाजाती है ? तीर्थयात्रा अथवा देवदर्शन से कौनसी हानि पहुँचती हैं श्रात्मा को उससे क्या लाभ होता है ? और अपने किसी निकट सम्बन्धी की मृत्यु हो जाने पर उसके शव के पीछे न जाना भी फोनला शिष्ठाचार है! जैनधर्म की शिक्षाओं से इन सब बातों का कोई सम्बन्ध मालूम नहीं होता। ये सब प्रायः हिन्दू धर्म की शिक्षाएँ जान पड़ती हैं।