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[ ] इस प्रतिज्ञावाक्य-द्वारा यह विवास दिखाया गया है कि इस अध्याय में ध्यान का~-उसके मात, रौद्र, धर्म्य, शुक मेदों का, उपभेदों का और पिण्डस्य, पदस्थ, रूपस्य तथा रूपातीत नाम के दुसरे भेदों का-जो कुछ कयन किया गया है वह सत्र 'ज्ञानार्णव' के मतानुसार किया गया है, भानाव से मिच अथवा विरुद्ध इसमें कुछ भी नहीं है। परन्तु बाँचने से ऐसा मालूम नहीं होता-पंथ में कितनी ही बातें ऐसी देखने में भाती हैं जो ज्ञानार्णव-सम्मत नहीं है अथवा शानार्णव से नहीं ली गई । उदाहरण के तौर पर यहाँ उनके कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं:- (अ) प्रणयविषय ' धर्मपान का लक्षण बताते हुए भड्काकाजी लिखते हैं* येन केन प्रकारण सैनो धर्मो प्रवर्धते ।
तदेव क्रियते पुम्मिरणायविचयं मतम् ॥ ३॥ अर्थात-निस तिस प्रकार से जैन धर्म बड़े वही करना अपायविचय माना गया है। परन्तु ज्ञानार्णव में तो ऐसा कहीं कुछ माना नहीं गया । उसमें दो साफ लिखा है कि 'बिस ध्यान में कर्मों के अपाय (नाश) का उपाय सहित चिन्तवन किया जाता है उसे अपा. यविषय कहते हैं । यथा:
* इस पथ पर से 'अपायषिचय' का जब कुछ ठीक लक्षण निकलता हुआ नहीं देखा तब सोनीजी ने वैसे ही खींचखाँच कर भावार्य आदि के द्वारा उसे अपनी तरफ से समझाने की कुछ चेर की है, जिसका अनुभव विक पाठकों को अनुवाद परसे सहज ही में हो जाता है।