________________
[
निषेधकर्मणि........पुत्रजीवकृतामाला ॥ ६६ ॥ स्तंमने दुष्टसमा अपेत् प्रस्तरकर्कराम् ॥ १०८ ॥
X
x
X
विद्वेषकर्मणि ........पुत्रजीवकृता मासा ॥ १८६॥
विद्वेषेऽरिष्टषीजजा ॥ १०८ ॥
x
x
X
x
शांतिकर्मणि..... मौक्तिकानां माझा ॥ १०१ ॥
शान्तये .........जपेदुत्पलमालिकाम् ॥ ११० ॥
X
मालूम होता है महारकनी को इस विरोध की कुछ मी खबर नहीं पड़ी और वे वैसे ही बिना सोचे समझे इधर उधर से पद्यों का संग्रह कर गये हैं । ११० वें पद्म के उत्तरार्ध में आप लिखते हैं-' षट्कर्माणि तु प्रोक्तानि पलवा अन उच्यते ' अर्थात् छह कर्म तो कड़े गये अब पलों का कथन किया जाता है । परन्तु कथन तो आपने इससे पहले वशीकरण आदि आठ कर्मों का किया है फिर यह छकी संख्या कैसी ! और पात्रों का विधान भी थाप. प्रत्येक कर्म के साथ में कर चुके हैं, फिर उनके कथन की यह नई प्रतिक्षा कैसी है और उस प्रतिज्ञा का पालन भी क्या किया गया है पलवों की कोई खास व्यवस्था नहीं बतलाई गई, महब कुछ मंत्र दिये हैं जिनके साथ में पलत्र भी लगे हुए हैं और वे पल्लब भी कई स्थानों पर पूर्व कथन के विरुद्ध है। मालूम नहीं यह सब कुछ लिखते हुए भट्टारकजी क्या, किसी नशे
फर्मों के लिये पत्थर के टुकड़ों की माला बतलाई गई है। विद्वेष कर्म मैं एक जगह जीयापूर्व की और दूसरी जगह रीठे के बीज की माता लिखी है और शांतिकर्म में एक जगह मोतियों की वो दूसरी जगह कमलगो की माता की व्यवस्था की गई है। इस तरह पर वह कथन परस्परविरोध को लिये हुए है।