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[२] अपं मंत्री महामंत्रः सर्वपापविनाशकः ।
अष्टोत्तरशतं ब्रतो पर्ने कार्याणि सर्वया ॥४॥ इस पथ में जिस मंत्र को सर्वपापविनाशक महामंत्र बतलाया है और जिसके १०८ बार जपने से सर्व प्रकार के कार्यों की सिद्धि होना लिखा है वह मंत्र कौनसा है उसका इस पथ से अथवा इसके पूर्ववर्ती पब से कुछ भी पता नहीं चलता।'ॐनमः सिद्धं' नाम का यह मंत्र तो हो नहीं समाता बो ८२ पथ में वर्णित है। क्योंकि उसके सम्बन्ध का ३३ पथ द्वारा-विच्छेद हो गया है। यदि उस से अभिप्राय होता तो यह पद्य 'इत्थं मंत्र' नामक ८३ पध से. पहले दिया जाता । अतः यह पथ यहाँ पर असम्बद्ध है। सोनीबी कहते हैं इसमें 'अपरामित मंत्र' का उल्लेख है। पैंतीस अक्षरों का अपरंजित मंत्र ('मो परहंताणं आदि ) बेशक महामंत्र है और वह उन सब गुणों से विशिष्ट भी है जिनका इसमें उल्लेख किया गया है परन्तु उससे यदि अभिप्राय था तो यह पप 'अपराजित् मंत्रोऽयं' नामक ८० पथ के ठीक बाद दिया जाना चाहिये था । उसके बाद 'षोडशाचरविद्या' तथा 'ॐनमः सिद्ध' नामक दो मंत्रों का और विधान बीच में हो चुका है, जिससे इस पत्र में प्रयुक्त हुए 'अयं (यह) पद का वाच्य अपरानित मंत्र नहीं रहा। और इस लिये अपराजितमंत्र की दृष्टि से यह पछ यहाँ और भी असम्बद्ध है और वह भट्टारकजी की रचनाचातुरी का मण्डाफोड़ करता है।
इस पद्य के बाद पाँच पच और हैं जो इससे भी ज्यादा असम्बद्ध है और वे इस प्रकार हैं:हिंसानृतान्यदारेच्छा चुरा चातिपरिग्रहः। अमूनि पंच पापानि दुःखदायीनि सस्ती ॥५॥ प्रोत्तरशतं मेवास्तेषां पृथगुदाहताः। दिखाता कता पूर्व करोति च करिष्यति ॥८६॥