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[१३] मनोवचनसायच ते तु निगुणिता नव। पुनः स्वयं छतकारितानुमोरैशाहतिः ॥७॥ सतार्षिशविस्ते भेदा कपाशुपयेवताम् । भोसरशतं शेयमसत्याविषु ताडशम् ॥ ॥ पृथ्वीपानीयतेजपवनसुतरवः स्थापरा. पंचकाया। मियानित्यौ निगोदी युगतिशिलिचतुः सत्यसावित्रसास्युः। एते प्रोका जिनेद्वादश परिगुणिता वाङ्मनः कायमेटेस्ते चान्यैः कारिताखिमिरपि गुणिताब्यायन्यैकसंस्था या
इन पदों में से पहले पब में हिंसादिक पंच पारों के नाम देकर लिखा है कि ये पाँचों पाप संसार में दुःखदाया है और इसके बाद वीन पदों में यह बताया है कि इन में से प्रत्येक पाप के १०८ भेद है। जैसे हिंसा पहले की, अन्न करता है, आगे करेगा ऐसे सीन मेद हुए। इनको मन-वचन-काय से गुणने पर हमेदारुत-कारित-अनुमोदना से गुणने पर २७ मेद और फिर चार कपायों से गुणने पर १०० भेद हिंसा के हो जाते हैं। इसी तरह पर असत्यादिक के भेद जानने ।
और पाचवे पच में हिंसादिक का कोई विकल्प उठाए बिना ही दूसरे प्रकार से १०८ भेदों को सूचित किया है--लिखा है 'पृथ्वी, आप, तेज, वायु, वृक्ष, (वनस्पति) ऐसे पाँच स्थावर काय, नित्य निगोद, अनित्य निगोद, दीदिय, बन्दिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञिपंचेन्द्रिय, और असजिपंचेत्रिय ऐसे बारह मेद निनद भगवान ने कहे हैं। इनको मन, वचन, काय तथा कृत, कारिव, अनुमोदना, से गुणने पर १०० भेद हो जाते हैं।
ये पारहमद भगवान ने किसके कहे।-जीवों के जीवहिलाके या असत्याविक के पेसा यहाँ पर कुछ भी नहीं दिखा । और न यही बतलाया कि ये पिचने मेद यदि जिनेंद्र भगवान के कहे हुए दो पहले भेद किसके कहे हुए है अथवा दोनों का ही कथन विकल्प करसे भगवान का किया माहै।