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'अपाविच ध्यान तब्यन्ति मनीषिणः ।
अपाय कर्मणां यत्र सोपायः स्मयते बुत्रैः ॥३४-१॥ इस नक्षण के सामने महारकनी का उत बक्षण कितना विशक्षण नान पड़ता है उसे बतखाने की जरूरत नहीं । सहदय पाठक सहज ही में उसका अनुभव कर सकते हैं। पास्तव में, वह बहुत कुछ सदोष तथा त्रुटिपूर्ण है और ज्ञानार्गव के साथ उसकी संगति ठीक नहीं बैठती।
(आ) इसी तरह पर पिण्डस्प और रूपस्य ध्यान के जो लक्षण भहारकमी ने दिये हैं उनकी संगति भी मानार्णव के साथ ठीक नहीं बैठती | महारकजी लिखते हैं-'सोक में जो कुछ विषमान है उस सबको देह के मध्यगत चिन्तषन करना पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है' और 'बिस ध्यान में शरीर नया जीव का भेद चिन्तयन किया जाता है उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं । यथा
“पत्किविविधते लोक वत्स देहमध्यगम् ।
इति चिन्तयते यत्त पिएखस्य ध्यानमुच्यते meen "शरीरजीवयोमेंदो यत्र पस्थमस्तु तत् ॥४॥ परत ज्ञानार्णव में ऐसा कुछ भी नहीं दिखा । उसमें पिण्डस्प ध्यान का जो पंचधारणात्मक खरूप दिया है उससे महारानी का यह लक्षण लाजिमी नहीं आता । इसी तरह पर समवसरण विभूति सहित देवाधिदेव श्री महतपरमेष्ठी के स्वरूप चिन्तबन को बो उसमें रूपस्थ ध्यान बतलाया है उससे यह शरीरजीवयोमेद नाम का लक्षण कोई गेल नहीं खाता ।
शायद इसीलिये पोनीजी को भावार्थ वारा यह लिखना पड़ा हो कि "विभूतियुक्त प्रहन्तदेव के गुणों का चिन्तन करना रूपस्थ ध्यान है। परन्तु सक-सक्षण का यह मावार्य नहीं हो सकता।