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[४] से पूजन, घर का ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर अपने लिये कन्या चरण की प्रार्थना करना, वधू के गले में घर की दी हुई ताली बाँधना, सुवर्णदान और देवोत्थापन आदि की बहुत सी बातें हिन्दू धर्म से लेकर अथवा इधर उधर से उठाकर रखती हैं
और उनमें से कितनी ही बातें प्रायः हिन्दूग्रंथों के शब्दों में उल्लेखित हुई हैं, निसका एक उदाहरण 'देवोत्यापन-विधि'का निम्न पद्य है--
समेच दिवसे कुर्याइवतोत्थापनं बुधः ।
षष्ठे च विषमे ने त्यत्का पंचमसतमौ ॥ १०॥ यह 'नारद' ऋषि का वचन है। मुहूर्त चिन्तामारी की 'पीयूषधारा' टीका में भी इसे 'नारद' का वचन लिखा है । इसी प्रकरण में महारानी ने 'विषाहात्मथ पौषे नाग का एक पछ और भी दिया है जो 'ज्योतिर्निपन्ध' ग्रंथ का पथ है। परंतु उसका इस ' देवोत्यापन' प्रकरण से कोई सम्बंध नहीं, उसे इससे पहले 'वधू-गृह-प्रवेश' प्रकरण में देना चाहिये था, जहाँ 'वधूप्रवेशनं कार्य ' नाम का एक दूसरा पर भी 'ज्योतिनिबन्ध मंथ से बिना नाम धाम के उद्धृत किया गया है। मालूम होता है भट्टारकजी को नकल करते हुए इसका कुछ भी ध्यान नहीं रहा ! और न सोनीनी को ही अनुवाद के समय इस गड़बड़ी की कुछ खबर पढ़ी है ॥
५-आदिपुराण में लिखा है कि पाणिग्रहण दीक्षा के अवसर पर वर और वधू दोनों को सात दिन का ब्रह्मचर्य चेना चाहिये और पहले तीर्थभूमियों आदि में विहार करके तब अपने घर पर जाना चाहिये । घर पर पहुँच कर कारण खोलना चाहिये और तत्पश्चात् अपने घर पर ही शयन करना चाहिये--वार के घर पर नहीं । यथाः
पाणिग्रहणदीक्षायां नियुक्वं समधूवरम् । आसप्ताई घरेब्रह्मावतं देवाग्मिलाक्षिकम् ।। १३२॥