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[५] झारखा स्वस्योषितां भूमि तीर्थभूमीहित्य च । खगृहं प्रविशेब्त्या परया वधूवरम् ॥ १३३ ॥ विमुक्तकणं पश्चात्स्वगृहे शयनीयकम् । अधिशय्य तथाकालं भोगाइरुपलालितम् ।। १३४ ॥
-३वा पर्व । परंतु महारानी ने उन दोनों के ब्रह्मचर्य की अवधि तीन रात की रखी है, गृहप्रवेश से पहले तीर्थयात्रा को आने की कोई व्यवस्था नहीं की, बलिक सीधा अपने घर को जाने की बात कही है और यहाँ तक बन्ध लगाया है कि एक वर्ष तक किसी भी अपूर्व तीर्थ भयका देवता के दर्शन को न जाना चाहिये; कारण को प्रस्थान से पहले भशुरगृह पर ही खोल देना लिखा है और वहीं पर चौथे दिन दोनों के शयन करने अथवा एक शय्यासन होने की भी व्यवस्था की है । जैसा कि भापके निम्न पाक्यों से प्रकट है"तदनन्तरं कापमोचनं कृत्वा मवायोमया प्राम प्रतिसीकस्य पयापामगिधुषनापिकं सुखेन कुर्यात् । स्वग्राम गच्छेत् । "विधाहे दम्पती स्यातां नियत्रं प्रचारिणी।
अनंता वधूवष लाशय्याचनाएनौ ।। १७२ ।। मस वाक्य में ग्राम की मदाक्षिणा के अनन्तर सुखपूर्वकदुग्धपान तथा त्रीसंभोगाधिक (लिधुवनाविक) करने का साफ़ विधान है
और उसके बाद स्वग्राम को जामा शिक्षा है। परंतु सोनीजी ने अनुबाद मासके विरुद्ध पहले अपने ग्राम को जाना और फिर वहाँ मो. माविक करना पतलाया है, जो भगके पों के कथन से भी विश्व पड़ता है। कहीं श्रादिपुराण के साथ संगति मिलाने के लिये तो ऐसा नहीं किया गया व तो करण भी वहीं स्वनाम को जाफर बुलवाना था।