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खे[] योन्यसंगो कम्पाया परस्य । गाव: स तु चित्रयों मैपुन्या कामगा ॥ ७ ॥ इत्या मित्या व नित्वा व कोणती ती राहा। असम कन्याहरसं राक्षसो विधिपते ॥ ७ ॥ सुमो प्रमख पा हो यत्रोपगति ।
যাবিন্তা ছিল বগঞ্জ জানামঃ [দৌ}{{Gঞ্জ
विवाहगेदों का यह सब वर्णन आदिपुग्रह सात मही है-उससे नहीं लिया गया--किन्तु हिन्दुओं के प्रसिद्ध मंथ 'मनुस्मृति ' से उसपर सखा गया है। मनुमति के तीसरे अध्याय में ये सब लोक, अविठों में दिये हुए पाठभेद के साप, क्रमशः म० २१ तथा न० २५ से ३४ तक दर्न है । और इनमें ऋत्विजे की जगह 'जि. नाची' तथा 'गोमिथुन' की जगह 'पत्रयुग' से पाठभेद भारकानी के किये हुए नाम पड़ते हैं।
-स विपक्रिया में मारकी में देवपूजन' का जो विधान किया है वह आदिपुराण से बड़ा ही विलक्षण मान पता है। गादिपुराण में इस अवसर के लिये खास दौर पर सिद्धोका पूजन रखा है जो प्रायः गाईपरयादि अभिकुण्डों में सम पीठिका मंत्रों द्वारा किया जाता है...और किसी पुरणाश्रम में सिद्ध प्रतिमा के सन्मुख पर और कन्या का पाणिग्रहमोत्सव करने की काका की है। पया---
सिनामावर्षि सम्पमिवयं दिजसमा कतानिनपसंपूजा कुस्तसाहित किया । ३६-१२६ ॥ पुरधाममे कपिलिवधिमाभिमुखं तयोः ।
दम्पत्योः परया भूला कार्य पाणिमहोत्सया--१३० ॥ * देखो 'मनुस्थति नियसागर प्रेक्ष पद बार सन् १६०५ की छपी हुई। अन्यत्र भी ली एलीसन का हवाला दिया गया है।