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मच्छर (जादिभिर्दतास्तावन्त्यो नृपवनभाः । अप्सरः संकथा क्षोण यकाभिरवतारिताः ॥ ३७-३५ ॥
इन पथों से यह भी प्रकटं है कि खबातीय कन्याएँ ही भोगयोग्य नहीं होतीं बल्कि म्लेच्छ जाति तक की विजातीय कन्याएँ भी भोगयोग्य होती हैं; और इसलिये भट्टारकजी का खजातीय कन्याओं को हा 'भोक्तुं भोजयितुं योग्या' लिखना ठीक नहीं है वह आदिपुराण की नीति के विरुद्ध है ।
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२- एक स्थान पर भट्टारकजी, कन्या के स्वयंवराऽधिकार का नियंत्रण करते हुए लिखते हैं:---
पित्रादिवाश्रभावे तु कन्या कुर्यात्स्वयंधरम् ।
इत्येवं केचिदाचार्याः प्राहुर्महति संकटे ॥ ८३ ॥
इस पद्य में कन्या को 'स्वयंवर' का अधिकार सिर्फ उस हालत में दिया गया है जबकि उसका पिता, पितामह, भाई आदि कोई भी airs] कन्यादान करने वाला मौजूद न हो। और साथ ही यह भी कहा गया है कि स्वयंवर की यह विधि कुछ श्राचार्यों ने महासंकट के समय बतलाई है । परन्तु कौन से भाचायों ने बतलाई है ऐसा कुछ लिखा नहीं - भगवज्जिन सेन ने तो बतलाई नहीं। भादिपुराण में स्वयंवर को संपूर्ण विवाहविधियों में 'श्रेष्ठ' (वरिष्ठ) बतलाया है और उसे 'सनातनमार्ग' लिखा है । उसमें राजा अकम्पन की पुत्री 'सुलोचना' सती के जिस स्वयंवर का उल्लेख है वह सुलोचना के पिता आदि की मौजूदगी में ही बड़ी खुशी के साथ सम्पादित हुआ
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था। साथ ही, भरत चक्रवर्ती ने उसका बड़ा अभिनंदन किया था और उन लोगों को पुरुषों द्वारा पूज्य ठहराया था जो ऐसे सनातन भागों का पुनरुद्धार करते हैं । यथा:
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