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[७ ] कियों पर ध्यान देते, उन्होंने इधर उधर से अंय का संमह किया है
और इसलिये उसमें बहुतसी पुनरुक्तिया हो गई हैं । उदाहरण के लिये इसी अध्याय को लीजिये, इसके तीसरे पत्र में भाप विवाहयोग्य कन्या का विशेषण 'अन्यगोत्रमवा देते हैं और उक्त पथ नं० ३६ में 'अन्यगोनजा' लिखते हैं, दोनों में कौनसा अर्थ-भेद है । फिर यह पुनरुक्ति क्यों की गई। इसी तरह पर १६०२ पथ में 'ऊर्य विवाहासनयस्य नैव कार्यों विवाहो दुहितुः समाधम्' इस पाक्य के द्वारा जो 'पुत्र विवाह से छह महीने बाद तक पुत्री का विवाह न करने की बात कही गई है वही १९२३ पद्य में न घुविवाहोर्ध्वस्तुत्रयेऽपि विवाहकार्य दुहितुच कुर्यात्' इन शब्दों में दोहराई गई है। ऐसी हालत में उक्त हेतु साध्य की सिद्धि करने में असमर्थ है। फिर भी यदि वैसे ही यह मान लिया जाय कि महारकजी का भाशय इस पत्र के प्रयोग से अपनी अपनी उपजाति की कन्या से ही था तो कहना होगा कि आपका यह कपन भी आदिपुराण के विरुद्ध है; क्योंकि श्रादिपुराण में विद्याधर जाति की कन्याओं से ही नहीं किन्तु म्लेच्छ जाति जैसी विजातीय कन्याओं से भी विवाह करने का विधान हैस्वयं भरतजी महाराज ने, जो आदिपुराण-धार्णित बहुत से विधिविधानों के उपदेष्टा हुए हैं और एक प्रकार से 'कुखकर' माने गये हैं, ऐसी बहुतसी कन्याओं के साथ विवाह किया है, जैसाकि भादिपुराण के निम्न पत्रों से प्रकट है--
इत्युपायैरुपायक साधयन्वच्छ मुजाः । तम्यः कम्यामिरक्षानिः प्रमोमोग्यान्युपाहरत् ॥ २१-१५१ . कुलनास्समिसम्पमा वेश्यस्वायत्त्रमा स्मृताः। अपलापरयकान्तीनां पाः राधाकरभूमया । ३.७-३४।'