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इस पच में, अन्य बातों को छोड़कर, एक बात यह कही गई है कि जो कन्या विवाही जाय वह वर्णविरोध से रहित होनी चाहियेमर्याद, असवर्णा न हो किन्तु सवर्षा हो । परन्तु यह नियम श्रादिपुराण के विरुद्ध है । आदिपुराण में त्रैवर्णिक के लिये सब और सवर्णा दोनों ही प्रकार की कन्याएँ विवाह के योग्य बतलाई हैं । उसमें साफ़ लिखा है कि वैश्य अपने वर्ण की भार शूद्र वर्ण की कन्या से क्षत्रिय अपने वर्ण की और वैश्य तथा शुद्र वर्ण की कन्याओं
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से और ब्राह्मण चारों ही वर्ण की कन्याओं से विवाह कर सकता है। सिर्फ शुद्र के लिये ही यह विधान है कि वह शूद्रा अर्थात् सवर्णा से . ही विवाह करे असवर्णा से नहीं । यथा:--
शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या खां तां च नैगमः ।
वहेत्स्वां वे च राजभ्यः स्त्रां द्विजन्मा कचिश्व ता : १६-४७॥ इस पूर्वविधान को ध्यान में रखकर ही आदिपुराण में विवाहक्रिया के अवसर पर यह वाक्य कहा गया है कि ' वैवाहिके कुले कन्यामुचितां परिष्यते - अर्थात् विवाहयोग्य कुल में से उचित कन्या का परिणयन करे। यहाँ कन्या का ' उचिता ' विशेषण बढ़ा ही महत्वपूर्ण, गम्भीर तथा व्यापक है और उन सब त्रुटियों को दूर करने वाला है जो त्रिवर्गाचार में प्रयुक्त हुए सुभगा, सुलक्षणा अन्यगोत्रभवा, कानातङ्का, भायुष्मती, गुणान्या, पितृदत्ता और रूपवती आदि विशेषणों में पाई जाती हैं। उदाहरण के लिये 'रूपवती ' विशेषण को ही लीजिये । यदि रूपवती कन्याएँ ही विवाह के योग्य हो त ' कुरूपा ' सब ही विवाह के योग्य ठहरें । उनका तब क्या बनाया जाय ? क्या उनसे जबरन ब्रह्मचर्य का पालन कराया जाय अथवा उन्हें वैसे ही व्यभिचार के लिये छोड़ दिया जाय ? दोनों ही बातें अनिष्ट तथा अन्यायमूलक हैं । परन्तु एक कुरूपा का उसके