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शोकसन्तापं सदा कुर्यादनक्षयम् । शान्ता सौभाग्यपुत्रार्थमान्यिवृद्धिप्रदा नदन् ॥ ३५ ॥
ये तीनों पच वसुनन्दि-प्रतिष्ठापाठ ( प्रतिष्ठासार संग्रह ) के चौष परिछेद के पथ हैं और उसमें क्रमशः नं० ७२, ७५, ७६, पर दर्ज हैं। इनमें पहला पद्म ज्यों का त्यों और शेष दोनों पच कुछ परिवर्तन के साथ उठा कर रक्खे गये हैं। दूसरे पथ में ' दृष्टिर्भयं ' की जगह 'रष्टेर्भय', ' तथा ' की जगह 'तदा' और ऊर्ध्वगा' की जगह ' ऊर्ध्वहक' बनाया गया है। और तीसरे पद्य में 'स्तब्धा' की जगह 'सदा' और 'प्रदा भवेत् ' की जगह 'प्रदानहक' का परिवर्तन किया गया है। ये सन परिवर्तन निरर्थक जान पड़ते हैं,
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' तथा ' की जगह ' तदा ' का परिवर्तन भद्दा है और 'स्तच्धा ' की जगह 'सदा' के परिवर्तन ने तो अर्थ का अनर्थ ही कर दिया है। यही वजह है जो पन्नालालजी सोनी ने अपने अनुवाद में, स्तब्धा दृष्टि के फल को भी ऊर्ध्व दृष्टि के फल के साथ जोड़ दिया है— अर्थात् शोक, उद्वेग, सन्ताप और धनक्षय को भी ऊर्ध्वदृष्टि का फल बता दिया है * !
यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि पहले पथ में जिस दृष्टि- प्रकाशन की प्रेरणा की गई है, जिनबिम्ब को वह दृष्टि कैसी होनी चाहिये उसे बतलाने के लिये प्रतिष्ठापाठ में उसके अनन्तर मी निम्नलिखित दो पक्ष और दिये हुए हैं---
नात्यन्तोन्मीलिता स्तब्धा न विस्फारितमतिता । तिर्यगूर्ध्वमघट वर्जयित्वा प्रयक्षतः ॥ ७३ ॥
यथा - " ( प्रतिमा की दृष्टि यदि ऊपरको हो तो स्त्री का मर होता है और वह शोक, उगे, सन्ताप और धनका क्षय करती है ।"