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हलकटे बले चित्यां चरमीके गिरिमस्तके | देवालये नदीतीरे धर्मपुपु शाहले ॥ २२ ॥ मह 'चौधायन ' नाम के एक प्राचीन हिन्दू लेखक का बचन है। स्मृतिरत्नाकर में भी यह 'बौधायन' के नाम से ही उद्धृत मिलता है। इसमें फालकृष्टे' की जगह यहाँ ' हलकृष्टे ' धोर 'दर्भपृष्ठे तु ' की जगह 'दर्भपुष्पेषु' बनाया गया है, और ये दोनों ही परिवर्तन कोई खास महत्व नहीं रखते बल्कि निरर्थक जान पड़ते हैं ।
प्रभाते मैथुने चैव प्रत्राचे दन्तधावने ।
खाने च भोजने चाम्यां सप्तमौनं विधीयते ॥१-३१ ॥
यह पद्य, जिसमें सात छावसरों पर मौन धारण करने की व्यवस्था की गई है - यह विधान किया गया है कि १ प्रातःकाल, २ मैथुन, ३ मूत्र, ४ दन्तधावन, ५ स्नान. ६ भोजन, मोर ७ वमन के अवसर पर मौन धारण करना चाहिये- 'हारीत' ऋषि के उस वचन पर से कुछ परिवर्तन करके बनाया गया है, जिसका पूर्वर्ष 'प्रभाते' की जगह 'उच्चारे' पाठभेद के साथ बिलकुल वही है जो इस पद्य का है और उतरार्ध है 'श्रद्धे (स्नाने) भोजनकाले च षट्सु मौनं समाचरेत् ।' और जो 'आन्हिक सूत्रावति' में भी 'हारीत' के नाम से उद्घृत पाया जाता है । इस पथ में 'उचारे' की जगह 'प्रभाते'
* इस लोक के बाद 'मलमूत्रसमीपे ' नाम का एक पद्म और मी पंचमृचिका के निषेध का है और उसका अन्तिम चरण भी 'नं प्राह्माः पंचमृत्तिका' है। वह किसी दूसरे विद्वान की रचना जान पड़ता है।
+ 'श्रद्धे' की जगह 'खाने' ऐसा पाठ भेद भी पाया जाता · है। देखो 'शब्द कल्पद्दम ।