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[२] यहाँ पर में त्रिवर्णाचार की एक दूसरी विलक्षण पूजा का भी उनम्न कर देना उचित सममाना हूँ, और वह है 'योनिस्य देवता की पूजा। महारकजी ने, गर्भाधान क्रिया का विधान करते हुए, इस अपूर्व अपना भक्षुतपूर्व देवता की पूजा का जो मंत्र दिया है वह इस प्रकार है
ॐ ह्रीं की न्यूँ योनिस्थदेवते मम सत्पुन जनयस प्रसिधाउसा स्वाहा।
इस मन में यह प्रार्थना की गई है कि है योनिस्थान में बैठे हुए देवता ! मेरे सत्पुत्र पैदा करो। भारकजी लिखते हैं कि 'यह मत्र पड़कर गोवर, गोमूत्र, दूध, दही, घी कुश (दर्भ ) और जन से योनिका अच्छी तरह से प्रक्षासन करे और फिर उसके ऊपर चंदन, केसर तथा कस्तुरी आदि का संप कर देवे । यथाइति मंत्रेण गोमयगोमूत्रचीरदघिसपिंकुशोदकोंनि सम्प्रदाय श्रीगंधकुंकुमकस्तूरिकाचनुलेपनं कुर्यात् ।
यही योनिस्य देवता का साक्षात पूवन है। और इससे यह मालून होता है कि मारकजी ऐसा मानते थे कि खी के योनि स्थान में किसी देवता का निवास है, जो प्रार्थना करने पर प्राथों से अपनी पूजा लेवार उसके लिये पुत्र पैदा कर देता है। परन्तु जैनधर्म की ऐसी शिक्षा नहीं है
और न बैनमतानुसार ऐसे किसी देवता का अस्तित्व या व्याक्तित्व ही माना जाता है। ये सब धाममानियों अपना शाक्तिकों जैसी बातें हैं। महारानी नै सम्भवतः उन्हीं का अनुकरण किया है, उन्हीं बैसी शिक्षा को समान में प्रचारित करना चाहा है, और इसलिये गर्माधान' क्रिया में श्रापमा यह पूजन-विधान महज प्रतिज्ञा-विरोध को ही लिये हुये नहीं है बल्कि जैनधर्म और जननीति के भी विरुद्ध है, और आपके इस क्रिया मन को अपये मंत्र सगना चाहिये।