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[७१] साहस नहीं होता था और इसीलिये आपको छल करना पड़ा। आपने, जेनी होने के कारण, 'गुरुक्रमात् पद के प्रयोग बारा अपने पाठकों को यह विश्वास दिलाया कि आप जैन गुरुओं की (जिनसेनादि की) कपन-परम्परा के अनुसार यज्ञोपवीत क्रिया का कथन करते हैं परंतु कथन किया आपने 'मनु' और 'याज्ञवल्क्म' जैसे हिन्दू ऋषियों की परम्परा के अनुसार, उनके वचनों तक को उद्धृन करके । यही
आपका छल है, यही धोखा है और इसे भापकी ठगविद्या का एक खासा नमूना समझना चाहिये।
इस क्रिया के वर्णन में नान्दीश्राद्ध और पिप्पलपूजनादिक की और भी कितनी ही विरुद्ध बातें ऐसी ई नो हिन्दूधर्म से ली गई है और जिनमें से कुछ का विचार भागे किया जायगा।
(3)'व्रतचों क्रिया का कथन, यद्यपि, महारकजी ने प्रादिपुराण के पद्यों में ही दिया है परन्तु इस कथन के 'यावद्विधासमाप्ति (७७), तथा 'सूत्रमौपासिक' (७) नाम के दो पदों को आपने 'प्रतावतरण क्रिया का कथन करते हुए उसके मध्य में दे दिया है, जहाँ
असंगत मान पड़ते हैं और इन पत्रों के अनन्तर के निम्न दो पयों को निलकुछ ही छोड़ दिया है. उनका आशय भी नहीं दिया
शब्दविद्याऽर्थशासादि चाध्येय नाऽस्म दूष्यते । सुसंस्कारप्रपोधाय वैयात्यख्यातयेऽपि च ॥ ३८-११६ ॥ ज्योतिर्मानमथ छन्दो शाशानं च शाकुनम् ।
संख्यामानमितीम् च तेनाध्येय विशेषता १२० ॥ इन पथों को छोड़ देने अथवा इनका आशय.भी न देने से प्रकृत क्रिया के अन्यासी के लिये उपासकसूत्र और अध्यात्मशान के पढ़ने का ही विधान रह जाता है परंतु इन पदों द्वारा उसके लिये व्याकरणशाक्ष, अर्थशाखादिक, ज्योतिःशाख, छन्दाशाल, शकुन शाखा और गणित