________________
[ ६६] क्रियोपनीनि माऽस्य वर्षे गर्माटम मवा। '
यधापनातकेयस्य मोझी सवतबन्धना ॥३-१०४॥ ;
और यह बात जैननीति के भी विरुद्ध है कि जिन लोगों का उक मर्यादा के भीतर उपनयन संस्कार न हुमा हो उन्हें सर्व धर्गकृत्यों से बहिष्कृत चौर वंचित किया जाय अथवा धर्म-सेवन के उनके सभी अधिकारों को छीन लिया जाय । जैनधर्म का ऐसा न्याय नहीं है और न उसमें उपनयन संस्कार को इतना महत्व ही दिया गया है कि उसके बिना किसी भी धर्म कर्म के करने का कोई अधिकारी ही न रहे । उसमें धर्मसेवन के अनेक मार्ग बतलाये गये हैं. जिनमें उपनयनसंस्कार भी एक मार्ग है अथवा एक मार्ग में दाखिल है। जेमी बिना यज्ञोपवीत संस्कार के भी पूजन, दान, स्वाध्याय, तप और संयम जैसे धर्मफलों का आचरण कर सकते हैं, करते हैं और करते आए हैं। आवक के बारह व्रतों का भी वे खंडशः अथवा पूर्णरूप से पालन कर सकते हैं और अन्त में सोखना व्रत का भी अनुष्ठान कर सकते हैं। प्रतिष्ठाकार्यों में भी बड़े बड़े प्रतिष्ठाचार्यों द्वारा ऐसे लोगों की नियुक्ति देखी जाती है जिनका उक्त मर्यादा के भीतर यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुमा होता । यदि त मर्यादा से ऊपर का कोई भी अजैन जैनधर्म की शरण में आए तो जैनधर्म उसका यह कह कर कभी याग नहीं कर सकता कि 'मर्यादा के भीतर तुम्हारा यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुभा इसलिये अब तुम इस धर्म को धारण तथा पालन करने के अधिकारी नहीं रहे। ऐसा कहना और करना उसकी नीति तथा सिद्धान्त के विरुद्ध है। वह खुशी से उसे अपनाएगा, अपनी दीक्षा देगा और जरूरत समझेगा तो उसके लिये यहोपवीत का भी विधान करेगा। इसी तरह पर एक जैनी, जो उक्त मर्यादा तक भवती अथवा धर्म कर्म से पराङ्मुख रहा हो, अपनी भूख को मालूम करके श्रावकादि के बत देना चाहें तो जैनधर्म उसके लिये मी यथायोग्य व्यवस्था करेगा। उसका