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मर्यादा के भीतर यज्ञोपवीत संस्कार से संस्कारित न होना, उसमें कुछ भी बाधक न होगा। और इन सब बातों को पुष्ट करने के लिये जैन शास्त्रों से सैकड़ों कथन, उपनयन और उदाहरण उद्धृत किये जा सकते हैं, जिनकी यहाँ पर कोई जरूरत गालग नहीं होती। अतः भट्टारकजी का उक्त लिखना जैनधर्म की नीति भौर प्रकृति के विरुद्ध है। वह हिन्दूधर्म की शिक्षा को लिये हुए है। मारकजी के उक पद्य भी हिन्दूधर्म की चीज़ है-पहले दोनों पद्य 'मनु' के पचन हैं और वे 'मनुस्मृति' के दूसरे अध्याय में क्रमशः मं० ३६, १७ पर ज्यों के त्यों दर्न | तीसरा पद्य और चौथे पथ का पूर्वार्ध दोनों 'याज्ञवल्क्य ऋषिके पचन हैं और 'याज्ञवल्क्यस्मृति' के पहले अध्याय में क्रमशः न० ३७ तथा ३८ पर दर्न है । रहा चौथे पद्य का उत्तरार्ध, यह भाारकजी की प्राय अपनी रचना नान पड़ता है और याज्ञवल्क्य स्मृति के 'सावित्रीपतिता नात्या वात्यस्तोमाइते ऋतोः' इस उत्तरार्ध के स्थान में बनाया गया है।
यहाँ पर पाठकों की समझ में यह बात सहज ही आणायगी कि कि जब महारकजी ने गुरुपरम्परा के अनुसार कथन करने की प्रतिज्ञा की तब उसके अनन्तर ही पापका 'मनु' और 'याज्ञवल्क्य के वाक्यों को उद्धृत करना इस बातको साफ सूचित करता है, कि आपकी गुरु परम्परा में मनु और याज्ञवल्क्य जैसे हिन्दू ऋषियों का खास स्थान था। आप बबाहिर अपने मकारकी वेष में भले ही, जैनी.तषा जेनगुरु बने हुए, मजैन-गुरुषों की निन्दा करते हों और उनकी कृतियों तथा विधियों को अच्छा न बतलाते हो परन्तु आपका अन्तरंग उनके प्रति झुका हुमा बरूर था, इसमें सन्देह नहीं; और यह भापकर मानसिक दौर्बल्य था जो आपको उन मनन-गुरुषों या हिन्दू क्राषियों के पाक्यों अथवा विधि-विधानों का प्रकट रूप से अभिनन्दन करने का