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यही सब इस ग्रंथ की दोनों (तचर्या और बतावतरण) क्रियाओं का आदिपुराण के साथ विरोध है। मालूम नहीं जब इन क्रियाओं को प्रायः आदिपुराण के शब्दों में ही रखना था तो फिर यह व्यर्थ की गड़बड़ी क्यों की गई और क्यों दोनों क्रियाओं के कयन में यह असामंजस्य उत्पन्न किया गया || मटारकी लीला के सिवाय इसे और क्या कहा जा सकता है ! मट्टारकजी ने तो अध्याय के अन्त में जा कर इन कियामों के अस्तित्व तक को मुला दिया है और 'इत्यं माँजी. पन्धन पाखनीय' मादि पत्र के द्वारा इन क्रियाओं के कथन को भी मौनीबन्धन का-यज्ञोपवीत क्रिया काही कयन बनसा दिया है!! इसके सिवाय, एक बात और भी जान लेने की है और वह यह कि श्रावकाचार अथवा श्रावकीय बसों का नो उपदेश 'प्रतचर्या क्रिया के अवसर पर होना चाहिये था * उसे मारकजी ने प्रतावतरण' क्रिया के भी बाद, दसवें अध्याय में दिया है और बतचर्या के कपन में वैसा करने की कोई सूचना तक भी नहीं दी । ये सब बातें भापके रचना-विरोध और उसके बेदंगेपन को सूचित करती हैं | आपको कम से कम ' प्रतावतरण ' क्रिया को दस अध्याय के अन्त में, अथवा ग्यारहवें के शुरू में-विवाह से पहले देना चाहिये था। इस प्रकार का रचना-सम्बन्धी विरोध अथवा बेढंगापन और भी बहुत से स्थानों पर पाया जाता है, और वह सब मिलकर महारकी की अंपरचना-संबंधी योग्यता को चौपट किये देता है।
. स्वतचर्या के अवसर पर उपासकाध्ययन के उपक्षेत्रों का संक्षेप में संग्रह होता है, यह बात आदिपुराण के निम्न पाय से मी प्रकट है
अथातोऽस्य प्रवक्ष्यामि प्रवचर्यामनुक्रमात् । स्थाधनोपासकाध्यायः समासनानुसंकृतः ॥ ४०-१६५ ॥