________________
[६५] नहीं किया, बल्कि दूसरे ही मंत्रों का व्यवहार किया है जो आदिपुराण से बिलकुल ही विलक्षण अथवा मिन्न टाइप के मंत्र हैं । इससे अधिक भगवज्जिनसेन का और उनके बचनानुसार जैनागम का भी विरोध और क्या हो सकता है । मैं तो इसे भगवबिजनसेनको खासी अबहेलना और साथ ही जनसाधारण की अच्छी प्रतारणा (चना) समझता हूँ। मस्त मगजिनसेनने 'मंन्त्रास्त्र एव धया। स्युर्य क्रियासु विनियोजिता: ' इस ३६ वे पर्व के वाक्य द्वारा उन्हीं मंत्रों को 'धर्म्यमंत्र' प्रतिपादन किया है जो उतप्रकार से क्रियाओं में नियोमित हुए हैं, और इसलिये महारकजी के मंत्रों को 'अपय मंत्र' अथवा 'झूठेमंत्र' कहना चाहिये । जब उनके द्वारा प्रयुक्त हुए मंत्र वास्तव में उन क्रियाओं के मंत्र ही नहीं, तब उन क्रियाओं से लाम भी क्या हो सकता है ? बल्कि सूठे मंत्रों का प्रयोग साथ में होने की धनह से कुछ बिगाड़ हो नाय तो पाचर्य नहीं।
यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि, त्रिवर्णापार में जो क्रिया-मंत्र दिये हैं वे आदिपुराण से पहले के बने हुए
* बाहरण के तौर पर 'लिपधा' क्रिया के मंत्र कोलिजिये। श्रादि पुराण में 'सत्यजाताय नम' आदि पीटिकामंत्रों के अतिरिकास क्रिया का जो विशेष मंत्र दिया वह है-"दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनमागी भव, परमसिंहासनभागी भव" और शिवाचार में जो मंत्र दिया है वह है-कहीं अहं असि मा उसापालकमुपदेशयामि स्वाहा होनी में कितना अन्तर हैस पाठक स्वयं समझ सकते हैं। एक उचम आशीर्षावात्मक अथवा भावनात्मक है तो दूसरा महज़ सूचनात्मक है कि मैं बालक को बिठलाता हूँ । प्रायः ऐसी ही हालत दूसरे मन्त्रों की समझनी चाहिये।
-
-