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[३४] नं०७ पर दर्ज है। इस पप में “प्रमृतिमात्रा तु" की जगह 'विल्वफलमात्रा','च' की जगह 'तु' और 'तदर्थोपरिकीर्मिता' की जगह तदर्थार्धा प्रकीर्तिता'ये परिवर्तन किये गये हैं, जो साधारण हैं और कोई खास महल नहीं रखते। यह पञ्च अपने दक्षस्मृति वाले रूप में ही पाचारादर्श और शुद्धिविवेक नामके प्रन्पों में 'दक्ष' के नाम से उल्लखित मिलता है।
अन्तहे देवगृहे वल्मीके मूषकस्थले। कृतशौचाधिशेषे च न ग्राह्या पंचमृतिकाः ॥२-४५ ॥
यह लोक जिसमें शौच के लिये पाँच जगह की मिट्टी को त्याग्य ठहराया है * ' शातातप' ऋषि के निम्न श्लोक को बदल कर बनाया गया मालूम होता है
अन्तर्जलाइवाइल्मीकान्मूपकगृहात् ।
कृतशौचस्थखाचन प्रायाः पंचसूतिकाः॥ यह लोक ' पाहिक सूत्रावलि ' में भी 'शातातप' के नाम से उद्धृत पाया जाता है।
अनामे दन्तकाष्ठानां निषिद्धायां सियावपि । - अगं द्वादशगराइपैमुबशुद्धिः प्रजायते ॥२-७३ ॥ __यह 'व्यास ऋषिका वचन है। स्मृतिरनाकर और निर्णयसिन्धु में भी इसे 'न्यास' का वचन लिखा है। हाँ, इसके पूर्वार्ध में प्रतिषिद्धदिनेष्वपि की जगह निषिद्धायां तिथावपि'
और उत्तरार्ध में भविष्यति' की जगह 'प्रजायते ' ऐसा पाठ भेद यहाँ.पर जरूर पाया जाता है जो बहुत कुछ साधारण है और कोई खास अर्गन्द नहीं रखता। '
पंथ के दूसरे अध्याय में. मल-मूत्र के लिये निषिद्ध स्थानों का वर्णन करते हुए, एक लोकं निम्न प्रकार से टिका तमा है- '