________________
[४०] घाक्य के द्वारा इसे 'पेठानसि' ऋषि का पचन सूचित किया है। यहाँ इसका चौथा चरण बदला हुआ है-'दशाह सूतकी भवेत्' की जगह 'पुत्राणां दशरात्रकम्' अगाया गया है। और यह तबदीली विज्ञकुल भदौ जान पड़ती है-'पुत्रका मादि पदों के साथ इन परिवर्तित पदों का अर्थसम्बंध भी कुछ ठीक नहीं बैठता, खासकर 'पुत्राणां पद का प्रयोग तो यहाँ बहुत ही खटकता है-~-सोनाजी ने उसका अर्थ भी नहीं किया और वह मटारकजी की योग्यता को और भी अधिकता के साथ व्यक्त कर रहा है।
ज्वरामिभूता या गारी रजसा चेत्सरिजुना। कथं तस्या भवेच्छाचं शुद्धिा स्यात्न कर्मणा ॥ ६॥ चतुर्थेऽहनि समाते शेवन्या तु तांत्रियम् । नात्या चैव पुनस्ता वै स्पृशेत् मात्वा पुनः पुनः ॥ ८ ॥ पशबादशकृत्यो वा हायमेन पुनः पुनः। । अन्त्ये च बासखां स्थान खात्या शुद्धा भबेनु सा Rel
-१३ वौं अन्याय। इन पदों में ज्वर से पीड़ित रजस्वला बी की शुद्धि का प्रकार बतलाया गया है और वह यों है कि 'चौथे दिन कोई दूसरी श्री बाग करके उस रजस्वला को छो, दोबारा स्नान करके फिर थे और इस तरह पर दस या बारह बार मान करके प्रत्येक मान के बाद उसे छुचे साथ ही बारबार पाचगन भी करती रहे । अन्त में सब काही का (निन्हें रजस्वला ओढे पहने अथवा बिछाए हुए हो ) त्याग कर दिया चाय तो वह रजस्वला शुद्ध होजाती है। ये तीनों पर रासे परिवर्तन के साथ 'उशना' नामक हिन्दू ऋषि के वचन हैं, जिनकी स्मृति! भी 'प्रौशनसधर्मशाल' के नाम से प्रसिद्ध है । याज्ञवल्क्यस्मृति की मिताघरा टीका, शुद्धिविवेक और स्मृतिरमार आदि प्रन्यों