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[१७] और इस तरह पर आपने अपने को प्रयोगवद (प्रयोगवादी ) अपना प्रयोगवद की नीतिका अनुसरण करने वाला भी सूचित किया है । हो सकता है महारानी की उक्त चिन्ता कुछ ठीक हो-वे अपनी स्थिति
और कमशोरी आदि को भाप जानते थे परन्तु जब उनको अपनी रचना से तेज अथवा प्रभाव पड़ने की कोई आशा नहीं थी तब तो उन्हें दूसरे विद्वानों के वाक्यों के साथ में उनका नाम देदेने की और भी ज्यादा वसरत थी। ऐसी हालत में भी उनका नाम न देना उक्त दोनों कारणों के सिवाय और किसी बातको सूचित नहीं करता । रही 'प्रयोगवद की मोतिका अनुसरण करने की बात, प्रयोगाद की यह नीति कदापि नहीं होती कि वह दूसरे की रचना को अपनी रचना प्रकट करे । यदि ऐसा हो तो 'काव्यचोर' और 'प्रयोगवद' में फिर कुछ भी अन्तर नही रह सकता। यह तो इस बात की बड़ी सावधानी रखता है और इसी में आनन्द मानता है कि दूसरे विद्वान का बो वाक्य प्रयोग उद्धृत किया जाय उसके विषय में किसी तरह पर यह काहिर कर दिया जाय कि यह अमुक विद्वान का पाक्य है अथवा उसका अपना वास्य नहीं है । उसकी रचना-प्रणाली ही अलग होता है और वह नहीं, वो भी कितने ही बुद्धिमान नवीन नवीन प्रयोगों को पसंद करते है, अतः उनका चितसले अवश्य अनुरंजित होगा।"
अनुवादकजी और तो क्या, ललकार की प्रकरिष्यं किया का अयं मी ठीक नहीं समझ सके ! तय 'इतिसुधियः केचित्मयोगवदाः ' का अर्थ समझना तो उनके लिये दूर की बात थी ।
आपने पुरातन पयावरण के समर्थन में नवीन नवीन प्रयोगों को पसंद करने की बात तो खूब कही ! और 'उनका चित्त इससे अवश्य अनुरंजित होगा' इस अन्तिम धास्यावतार ने तो मारके ग्राप ही ढा दिया !!!