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[४३] सूचनाओं के द्वारा जो यह विश्वास दिलाया था कि उसने इस अंग में जो कुछ लिखा है वह उक्त जिनसेनादि छहों विद्वानों के प्रथानुसार लिखा है और जहाँ कहीं दूसरे विद्वानों के प्रधानुसार कुछ कपन किया है वहाँ पर उन विद्वानों का अथवा उनके ग्रंथों का नाम दे दिया है। यह एक प्रकार का धोखा है । अंपकार महाशय (महारानी) अपनी प्रतिज्ञाओं तथा सूचनामों का पूरी तौर से निर्वाह नहीं कर सके और न पैसा करना उन्हें इष्ट था, ऐसा जान पड़ता है-उन्होंने दो चार अपवादों को छोड़ कर कहीं भी दूसरे विद्वानों का या उनके प्रयों का नाम नहीं दिया और न ग्रंथ का सारा कयन ही उन जैन विद्वानों के वाक्यानुसार किया है जिनके ग्रंथों को देख कर कपन करने की प्रतिज्ञाएँ की गई थी, बल्कि बहुतसा कथन भजैन ग्रंथों के आधार पर, उनके वाक्यों तक को उद्धृत करके, किया है जिनके अनुसार कथन करने की कोई प्रतिज्ञा नहीं की गई थी। और इसलिये यह कहना कि' भधारकजी ने जान बूझ कर अपनी प्रतिज्ञाओं का विरोध किया है और उसके द्वारा पवलिक को धोखा दिया है' कुछ भी अनुचित न होगा । इस प्रकार के विरोष तथा धोखे का कुछ और भी स्पष्टीकरण 'प्रतिज्ञादि-विरोध' नाम के एक अवग शीर्षक के नीचे किया जायेगा। ____ यहाँ पर मैं सिर्फ इतना और बतला देना चाहता हूँ कि मारकजी ने दूसरे विद्वानों के ग्रंथों से जो यह बिना नाम पाम का भारी संग्रह करके उसे अपने ग्रंथों में निबद्ध किया है-'उक्त च* आदि रूप से भी नहीं पता-और इस तरह पर दूसरे विद्वानों की कृतियों को अपनी कृति अपवा रचना प्रकट करने का साहस किया है वह
*पंथ में इस पाँच पद्यों को जो 'उ ' भाविकपसे देखा है उनका यहाँ पर महण नहीं है।