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[१४] एक बड़ा ही निन्ध तथा नीच कर्म है । ऐसा जघन्य भाचरण करने बालों को श्रीसोमदेवसरि ने 'काव्यचोर' और 'पातकी' लिखा है । यथाः--
छत्वा कृती: पूर्वकृताः पुरस्तात्मायावर ताः पुनरीक्षमाणः। वष जस्पेदय योऽन्यथा पास काम्यचोरोऽसुखातकीच ॥
यशस्लिलका श्री अजिनसेनाचार्य ने तो दूसरे कामों के सुन्दर शब्दायों की छाया तक हरने वाले कवि को 'चोर' (पश्यतोहर) बतसाया है । यथाः
अन्यकाव्यशब्दार्थछायां नो ग्चयेत्कविः । सकाव्य सोज्यथा लोके पश्यतोहरतामरेत् ॥६५u
-मलवारधिन्तामणि । ऐसी हालत में महाका सोगमेनजी इस कार्य से किसी तरह गौ मुक्त नहीं हो सकते । वे माने ग्रंथ की इस स्थिति में, उस प्राचार्यों के निर्देशानुसार, अवश्य हो 'काम्पचोर' और 'पानकी' कहलाये जाने के योग्य है और उसकी गहना तस्कार लेखकों में की नानी चाहिये । उन्हें इस कलंक से बचने के शिये कमसे क्रम उन पद-वास्यों के साथ में नो ज्यों के से उठाकर रक्खे गये हैं उन विद्वानों अथवा उनके ग्रन्थों का नाम जरूर देदेना चाहिये था जिनके व पचन थे; जैसा कि 'पाचारादर्श' और 'मिताक्षरा' आदि ग्रन्थों के कनीओं ने किया है। ऐसा करने से ग्रंथ गत मइस कम नहीं होता किन्तु उसकी उपयोगिता और प्रामाणिकता बढ़ जाती है। परन्तु महारानी में ऐसा नहीं किया और उसके दो खास कारण जान पड़ते हैं--एक तो यह कि, वे हिन्दू धर्म की बहुनसी थानों को प्राचीन जैनाचार्यों अथषा जैनविद्वानों के नाम से बैनसमाज में प्रचारित करना चाहते'