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यह पथ, 'नोदेति वै ' की जगह ' नोठ्यते ' पाठभेद के साथ 'करण' ऋषि का वचन है । याज्ञवल्क्यस्मृति की 'यिताइरा' टीका में भी, 'पथाह कश्यप'' वाक्य के साथ, इसे 'करपथ' ऋषि का वचन सूचित किया है ।
पूर्वमायुः परीक्षेत पश्चात्तयमेव च । प्रायुजाः किं प्रयोजनम्॥११८॥ यह 'सामुद्रक' शास्त्र का वचन है । शब्दकान्मम को में इसे किसी ऐसे सामुद्रक ज्ञान से उद्धृत किया है जिसमें श्रीकृष्ण तथा महेश का संवाद है और उसमें इसका तीसरा चरण 'आयुहीन नराणां चेत् ' इस रूप में दिया हुआ है।
महानद्यन्तर पत्र गिरिवी व्यवधायकः ।
पाचो यत्र विभिद्यन्ते देशात
१३-६६ ॥ यह 'देशान्तर' का लक्षण प्रतिपादन करने वाला पण 'वृद्धमनु' धन है, ऐसा शुद्धिविवेक नागक ग्रंथ से मालूम होता है, जिसमें वृद्धमनुरप्याह ' इस वाक्य के साथ यह उद्धृत किया गया है। यहाँ पर इसके चरणों में कुछ श्रम-मेद किया गया है- पहले चर को तीसरे नम्बर पर और तीसरे को पहले नम्बर पर रक्खा गया है--- बाकी पाठ सब ज्यों का त्यों है।
पितस्यातां रोये हि पुत्रकः ।
श्रुत्वा तद्दिनमारभ्य पुवायां शराणकम् ॥१३-७१
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यह पथ, जिसमें गाता पिता की मृत्यु के समाचार सुनने पर दूर देशान्तर में रहने वाले पुत्र को समाचार सुनने के दिन से दस दिन का 'सूतक बताया गया है, 'पैठीनसि ' ऋषि का वचन है। पाइ वल्क्यस्मृति की 'मिताक्षरा' टीका में भी, जो एक प्राचीन अंग है और 'दासतों में गान्यकिण जाता है, ' इति पैठीनसि स्मरथात् '