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[८] आन्हिका सूत्रावलि और स्मृतिरनाकर नामक ग्रंथों में भी यह पर्व 'पराशर ऋषि के नाम से ही वधुत पाया जाता है।
खगृहे प्रायशिरा कुर्याङ्गापुरे दक्षिणामुखः ।
प्रत्यक्ष प्रवाचन कदाचिदुवक मुखः।-२४ ॥ यह पथ, जिसमें इस बात का विधान किया गया है कि अपने घर पर तो पूर्व की तरफ सिर करके, सासके घर पर दक्षिण की ओर मुंह करके और प्रयास में पश्चिम की घोर मुंह करके सोना चाहिये तथा उत्तर की तरफ मुंह करके कभी भी न सोना चाहिये-~-घोड़े से परिवर्तनों के साथ-'गर्ग ऋषि का वचन है । प्रान्हिकसूत्रावति में इसे गर्ग ऋषि के नाम से निस तरह पर उद्धृत किया है उससे मालूम' होता है कि यहां पर इसमें शते श्वाशुयें की जगह 'कुर्याच्वायुरें का, 'पाशिरा' की जगह 'प्राशिरः का, 'तु' की जगह 'च' का और पिछले तीनों चरणों में प्रयुक्त हुए प्रत्येक शिरा पद की मगह 'मुखः' पद का परिवर्तन किया गया है । और यह सत्र परिवर्तन कुछ भी महत्व नहीं रखता--'शेते' की जगह 'कुर्यात की परिवर्तन महा है और शिराः' पदों की जगह 'मुखः'पदों के परिवर्तन ने तो अर्थ का अनर्थ ही कर दिया है। किसी दिशा की भोर सिर करके सोना और बात है और उसकी तरफ मुँह करके सोना दूसरी बात है-एक दूसरे के विपरीत है। मालूम होता है भरकाली को इसकी कुछ खबर नहीं पड़ी परन्तु सोनीजी ने खबर जसर लेखी है। उन्होंने अपने अनुवाद में मुख की जगह सिर बनाकर उनकी त्रुटि को दूर किया है और इस तरह पर सर्वसाधारण को अपनी सत्यार्थ प्रकाशकता का परिचय दिया है।
नावे समुत्पने मृते रजति सूत्रके। . 'पूर्वमेव विनं प्राय यावदेति वै रविः ॥ १३-६॥