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[३६] का जो खास परिवर्तन किया गया है वह बड़ा ही विचित्र तथा विलक्षण जान पड़ता है और उससे मक्षस्योग के अवसर पर गौन का विधान न रहकर प्रातःकाल के समय मौन का विधान हो जाता है। जिसकी संगति कही से भी ठीक नहीं बैठती । मालूम होता है सोनाजी को भी इस पंचकी विलक्षणता कुछ खटकी है और इसीलिये उन्होंने, पकी असलियत को न पहचानते हुए, यों ही अपने मनगढन्त 'प्रभाते का अर्थ "सामायिक करते समय" और 'प्रस्तावे' का अर्थ "दृष्टी पेशाब करते समय" दे दिया है, और इस तरह से अनुवाद की भर्ती द्वारा महारानी के पथ की त्रुटि को दूर करने का कुछ प्रयन किया है । परन्तु आपके ये दोनों ही अर्थ ठीक नहीं है-'प्रभात' का अर्थ 'प्रातकाल' है न कि 'सामायिक' और 'प्रस्ताव का अर्थ 'मूत्र' है न कि 'मल-मूत्र (ही पेशाब) दोनों । और इसलिये अनुवाद की इस लीपापोती द्वारा मूल की त्रुटि दूर नहीं हो सकती और न विद्वानों की नजरों से यह छिपी सकती है। हाँ, इतना जरूर स्पष्ट' हो जाता है कि अनुवादकनी में सत्य अर्ष को प्रकाशित करने की कितनी निष्ठा, तत्परता और क्षमता है। .
खदिरश्च करंजश्च कदम्बश्च घटस्तथा। विक्षिणी घेणुमच निम्ध श्रावस्तथैव च । २-६३ ॥ अपामार्गध विल्यम हर्क प्रामकस्तथा। पते प्रशस्ताः कथिता वन्वधावनकर्मणि ॥२-६४ ॥ ये दोनों पथ, जिनमें दाँतन के शिये उत्तम काष्ठ का विधान किया गया है 'नरसिंहपुराण के वचन हैं। भाचारादर्श नामक अप में भी इन्हें 'नरसिंहपुराण के हो वाक्य लिखा है। इनमें से पहले पद्य, में 'माननिम्बौं' की जगह 'निम्ब प्रानाका तया 'घेणपष्टश्च' की नगह 'वेणुवृक्षार्थ' का पाठभेद पाया जाता है, और दूसरे पक्ष