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माह 'पूज्यपाद-उपासकाचार' का पथ है और उसमें इसका संध्यागम्बर ११।।
वादसत्याचौर्याच कामा ग्रंथाभियतनम् । पंचकाणुवतं रानिमुक्ति षष्ठमणुप्रतम् ॥१०-१५॥ यह चामुण्डराय-विरचित 'चारित्रसार ग्रंथ के भगुवत-प्रकरण का अन्तिम पद्य है।
अन्दोमुखेऽवसाने च यो वे घटिके त्यजत् । निशामोजनोपोऽनात्यती पुण्यभोजनम् ॥ १०-८६॥ यह हेगचन्दाचार्य के योगशास्त्र का पथ है और उसके तीसरे प्रकाश में नं०६३ पर पाया जाता है । इसमें 'त्यजन् की जगह 'त्यजेत्' और 'पुगपभाजनम्' की जगह यहाँ 'पुण्यभोजनम् बनाया गया है। पधका यह परिवर्तन कुछ अच्छा मालूम नहीं होता। इससे 'सुबह शामकी दो दो बड़ी छोड़कर दिनमें भोजन करनेवाला मनुष्य पुण्यका भाजन (पात्र) होता है की जगह यह प्राशय हो गया कि नो सुबह शागकी दोदो घड़ी छोड़ता है वह पुण्य भोजन करता है, और यह भाशय भयमा कथनका ढंग कुछ समीचीन प्रतीत नहीं होता।
प्रास्तामेतधविध जननी यहां मन्यमाना निन्यां चेयं विदधति जना मित्रपार पीतमया। तत्राधिक्यं पथि निपतिता यस्किरस्सारमेयात्
घले सूत्रं मधुरमधुरं भाषमाणाः पियन्ति ॥ ६-२६७ ॥ यह मधपान के दोषको दिखाने वाला पद्य पमनन्दि-भाचार्यविरचित 'पअनन्दिपंचविंशति' का २२ वौ पच है।
* पं० पचालालजी सोनी ने मी, अपने अनुवाद में, यही शिखा' हैकि "पुरुष पुण्यभोजन करता है।"