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E२८] स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा कपायवान् ।
पूर्व मापयतराणां तु पश्चात्स्यावा न पा वधः ॥ १०-GER यह पयः'राजवार्तिक' के ७वें अध्याय में 'उक्तंच रूप से दिया हुआ है और इसलिये किसी प्राचीन ग्रंथ का पथ जान पड़ता है। हाँ, रानवार्तिक में 'कपायवान्' की जगह 'प्रभादवान् ' पाठ पाया जाता है, इतना ही दोनों में अन्तर है।
यह तो हुई जैनयों से संग्रह की बात, और इसमें उन नैनविद्वानों के वाक्यसंग्रह का ही दिग्दर्शन नहीं हुभा जिनके ग्रंथों को देखकर उनके अनुसार कथन करने की कि उनके शब्दों को उठा कर ग्रंथ का अंग बनाने की प्रतिहार अथवा सूचनाएँ की गई थी बल्कि उन जैन विद्वानों के पाक्यसंग्रह का भी दिग्दर्शन होगया जिनके वाक्यानुसार कपन करने की बात तो दूर रही, ग्रंथ में उनका कहीं नामोलेन तक भी नहीं है। नं०६ के बाद के सभी उल्लेख ऐसे ही विद्वानों के वाक्य-संग्रह को लिये हुए हैं। __ यहाँ पर इतना और भी वतजादेना उचित मालूम होता है कि इस संपूर्ण जैनसमह में ब्रह्मसूरि-त्रिवर्णाचार जैसे दो एक समकक्ष प्रयों को छोड़कर शेप ग्रंथों से जो कुछ संग्रह किया गया है वह उस क्रियाकांड तथा विचारसम्झ के साथ प्रायः कोई खास मेल अथवा सम्बंधविशेष नहीं रखता निसके प्रचार अषमा प्रसार को लक्ष्य में रखकर ही इस त्रिवर्णाचार का अवतार हुआ है और जो बहुत कुछ दूपित, श्रुटिपूर्ण तथा आपचि के योग्य है । उसे बहुभा त्रिवर्णाचार के मूल अभिप्रेतों या प्रधानतः प्रतिपाच विषयों के प्रचारादि का साधनमात्र समझना चाहिये अथवा यों कहना चाहिये कि वह खोटे, बाली तथा अन्य मुल्य सिक्कों को चलाने के लिये उनमें खरे, पैर बाली तथा बहुमूल्य सिकों का संमिश्रण है और कहीं कहीं मुबम्मे का काम भी देता है, और इसलिये एक प्रकार का धोखा है।