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[२१] ये दोनों पक्ष एकसंधि-जिनसंहिता के ७ परिच्छेद में क्रमश: नं.१६, १७ पर दर्ज हैं और वहाँ से उठाकर रक्खे गये मालूम होते हैं। साप में आगे पीछे के और भी कई पत्र लिये गये हैं। इनमें से पहला पथ यहाँ ज्यों का स्यों और दूसरे में महानयर' की मगह 'महाग्नयः' तथा प्रसिद्धया' की जगह 'प्रसिद्धयः 'ऐसा पाठ भेद पाया जाता है और ये दोनों ही पाठ ठीक जान पड़ते हैं। अन्यथा, इनके स्थान पर जो पाठ यहाँ पाये जाने हैं उन्हें पथ के शेष भाग के साथ प्रायः असम्बद्ध कहना होगा | मालूम होता है ये दोनों पद संहिता में थोड़े से परिवर्तन के साथ आदिपुराण से लिये गये हैं। प्रादिपुराण के १० पर्व में ये नं०८३, ४ पर दिये हुए हैं, सिर्फ पहले पथ का चौथा चरण वहाँ ' पूजाङ्गत्वं समासाथ' है और दूसरे पक्ष का पूर्वार्ध है-कुण्डनये प्रणेतव्यालय एते माग्नयः इनका जो परिवर्तन संहिता में किया गया है वह कोई अर्थविशेष नहीं रखता-उसे व्यर्थ का परिवर्तन कहना चाहिये।
यहाँ पर इतना और भी बतला देना उचित मालूग होता है कि यह संहिता विक्रम की प्रायः १३ वीं शताब्दी की बनी हुई है और
आदिपुराण विक्रम की री १० वी शताब्दी की रचना है। , (७३ बसुनन्दि-प्रतिष्ठापाठ से भी बहुत से पत्र लिये पाये। छठे अध्याय के १६ पषों की जाँच में ११ पब ज्यों के त्यों और पप कुछ बदधे हुए पाये गये | इनमें से तीन पन नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं
शक्षणैरपि संयुक्त विम्बंष्टिविवर्जितम् । । न शोमते पवस्तस्मात्यर्याद धिप्रकाशनम् ॥३३॥ मर्थनार्थ विरोधच सिग्हमेयं वदा । अपस्तात्पुयनांश च मार्यामरणामूर्खडक ॥ ३४ ॥