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|सागर
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समं ध्याने मनः कस्वा मध्यदेशेषु निश्चलम्। ज्ञानमुद्रांकितो भूत्वा स्वांके तु वामहस्तकम् ॥ १६ ॥ अंगुष्ठतर्जनीभ्यां तु सव्यहस्तेन निर्मलाम् ।
जपमालां समादाय जपं कुर्याद्विचक्षणः ॥ २० ॥ यह जप करनेकी विधि लियो, इसके सिवाय जो कोई मनुष्य अपने हृदयमें उद्वेग वा चंचलता रखता हुआ जप करता है अथवा मालाके मेरुदंडको उल्लंघन कर जप करता है अथवा जो उँगलीके नखके अग्रभागसे जप करता है वह जप सब निष्फल होता है । लिखा भी हैव्यग्रचित्तेन यज्जप्तं यज्जप्तं मेरुलंघने । नखाग्रेण च यज्जप्तं तज्जप्तं निष्फलं भवेत् ॥ इस प्रकरणमें मालाके भेद इस प्रकार समझने चाहिये । क्रियाकोशमें लिखा है।
प्रथम फटिकमणि मोती माल । सोना रूपा सुरंग प्रवाल । जी पोत रेशम जान । कमलबीज फुनि सूत बखान ।।
यह नव भाँति जापके भेद । भजिये जिनवर तजि मनखेद ॥ दूसरी जगह लिखा है--
सूत्रस्य जाप्यमालायाः सदा जापः सुखावहः । दग्धमृदस्थिकाष्ठानामक्षमालाऽफलप्रदा ॥१॥ सुवर्णरोप्यविद्रुमोक्तिका जपमालिकाः।
उपवाससहस्राणां फलं यच्छन्ति जापतः॥ २ ॥ अर्थात् सूतको माला सदा सुख देनेवाली है। अग्निके द्वारा पकी हुई मिट्टी, हड्डी, लकड़ी और स्वाक्ष आदिकी मालाएं कुछ फल देनेवाली नहीं हैं, ये मालाएं अयोग्य हैं, ग्रहण करने योग्य नहीं हैं अर्थात् * स्फटिक, मोती, सोना, चाँदी, अच्छे रंगका मूगा, पोत, रेशम, कमलबीज, सूत ।
रायkasiRITRATESDEPRILमाचारमा
- नामचा
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