________________
६०] चरणानुयोग
नया निब्बियए भोए, जे विश्वे जे य माणुसे । तया चयह संगो समितरबाहि
"
संजोगं, समितरबाहि
जया चयह तथा भविता पचइए
अणगारियं ॥ अपगारिथं ।
अणुतरं ॥ अनुसर फासे
।
जया मुण्डे भविता पाइए तया
जया
संरक्nिg", धम्मं फासे संवरविरुद्ध का या पुणेड़ सम्बर, अमोहक सु
शाम से निर्माण प्राप्ति
जया धुणइ कम्मर, अबोहिकसं तया सवलगं नाणं, दंसणं
मि
।।
कर्ड |
।।
जपा सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छाई । तथा लोगमलोगं च, जिणो जागव केवली ॥
जब मनुष्य दैविक औरों से विरक्त हो जाता है तब यह आभ्यन्तर और बाह्य संयोगों को त्याग देता है ।
सूत्र १२
जब मनुष्य आभ्यन्तर और बाह्य संयोगों को त्याग देता है। तब वह मुंड होकर अनमार-वृत्ति को स्वीकार करता है।
जब मनुष्य मुंड होकर मनवार-वृत्ति को स्वीकार करता है तब वहु उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है ।
जब मनुष्य उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है तब वह अबोधि- रूप पाप द्वारा संचित कर्म रज को प्रकम्पित कर देता है।
जब गन्रष्टा अवधि- रूप पाए द्वारा संचित कर्म-रज को प्रकम्पित कर देता है तब वह सर्वत्र गामी ज्ञान और दर्शनकेवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है ।
जन मनुष्य सर्वत्र यामी शान और दर्शन केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है तब वह जिन और केवली होकर लोक भलोक को जान लेता है ।
—
१ आभ्यन्तर संयोग — क्रोध, मान, माया, लोभ आदि । बाह्य संयोग क्षेत्र, वास्तु, हिरण्यक, सुवर्ण, स्वजन, परिजन बादि
२ (क) मुण्ड दो प्रकार के होते हैं-द्रव्यगुण और भावमुण्ड, केश चुम्बन करना द्रव्यमुण्ड होना है। इन्द्रियों के विषयों पर विजय कोक और भावको मानसिक मुष्ट कहते हैं।
प्राप्त करना भावण्ड होना है।
(ख) स्था. अ. १०, सु. ७४६ में दस प्रकार के मुण्ड कहे हैं। यथा
मुड दस प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-
१. श्रोत्रेन्द्रियमुण्ड - श्रत्रेन्द्रिय के विषय का मुण्डन (त्याग) करने वाला
२. क्षुरिन्द्रियमुण्ड क्षुरिन्द्रिय के विषय का मुण्डन करने वाल । |
३. प्राणेन्द्रियमुण्ड: प्राणेन्द्रिय के विषम का मुण्डन करने वाला । ४. रयिण्डरसनेन्द्रिय के विवय कानुन करने वाला
१. स्पनेद्रियमुदस्वर्धनेद्रिय के विषय का मुण्डन करने वाला।
-
६. क्रोधमुण्ड - क्रोध कषाय का मुण्डन करने वाला । ७. मानमुण्डमान कषाय का मुण्डन करने वाला । 5. मायामुण्ड - माया कपाय का मुण्डन करने वाला ।
६. लोभमुण्ड – लोभ कषाय का मुण्डन करने वाला
१०. रोड सिर के केशों का मुण्डन करने वाला
दस मुण्डा पण्णत्ता, तं जहा सोतिदियमुण्डे ( चक्खि दियमुण्डे, घाणिदियमुण्डे, जिम्भिदियमुण्डे, फासि दियमुण्डे, कोहमुण्डे, मागमुण्डे गावडे, श्रीर
३ देशविरत का संवर देशसंबर है अत जघन्य संवर है । सर्वविरति का संवर सर्वसंबर है इसलिए उत्कृष्ट संघर है ।
४ बोध रहित दशा अर्थात् अज्ञान दशा या मिथ्यात्वदशा को अवरोधि कहते हैं। जब तक व्यक्ति बोधरहित रहता है तब तक ही पापकर्म करता है ।
५ आत्मा का आवरण कर्मरज है, उसके धुन देने से केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप आत्मस्वरूप प्रकट हो जाता है ।
६ केवलज्ञान से लोकव्यापी समस्त पदार्थों को तथा अलोक को केवलज्ञानी जान लेता है।
७ स्थानांग सूत्र, स्था. ३, उ. ४, सूत्र २२० में तीन प्रकार के जिन भर तीन प्रकार के केवली कहे हैं, किन्तु यहाँ केवलज्ञानी केवल और केवल बिन कहे गये है।