Book Title: Charananuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 684
________________ ६५२] घरगानुयोग वहुभुत वसति निवास विधि-निषेध मूत्र १०७-१११ इमंसि स्खलु गामसि बा-जाव-रावहाणिसि था, महतो इस ग्राम--यावत्--राजधानी में स्वाध्याय-योग्य विशाल विहारभूमि, महतो वियारभूमि । भूमि है, मल-मूथ-विसर्जन के लिए विशाल स्थग्विल भूमि है, सुलभे जत्थ पौढ-फलग-सेज्जा-संथारए, यहाँ पीठ, फलक, गच्या-संस्तारक को प्राप्ति भी सुलभ है, सुख फासुए उछे अहेसणिज्जे, प्रामुक निर्दोष एवं एषणीय आहार पानी भी सुलभ है,। जो जत्थ बहबे समण-जाव-वणीमगा उवागया उवागमिस्संति जहाँ बहुत-से श्रमग-- पावत्- भिखारी आये हुए नहीं हैं य। और न आयेंगे अप्पाइण्णा वित्ती, पण्णस्स जिखमण-पबेसाए-जाव-चिंताए। तथा यहाँ के मार्गों पर जनता की भीड़ भी कम है, जिससे सेवं णच्या तहप्पगारं गाम वा-जाव-रायह "णि बा तजो कि प्राज्ञ साधु का निकलना और प्रवेश करना-यावत्-धर्म संजयामेव पासावासं उपसिएग्जा। चिन्तन करना हो सकता है, अतः इस प्रकार जानकर साधु ऐसे - आ. मु० २, २०३, २०१, सु० ४६५-४६६ ग्राम यावत्-राजधानी में यतनापूर्वक वर्षावास व्यतीत करे। बहुमयस्स वसइ वासाई विहि-णिसेहो- बहुधुर वसति निवास-विधि-निषेध१०८. से गामसि वा जाव सनिवेसंसि वा अभिनिव्वगए, अभि- १०८. भिन्न-भिन्न वाड़, प्राकार या द्वारवाले और भिन्न-भिन्न निद्वाराए, अभिनिफ्लमण-पवेसणाए नो कप्पर बहुर सुयम्स निष्क्रमण-प्रवेश वाले ग्राम- यावत्-- सनिवेग में अकेले बहुश्रुत बम्मागमस्स एवाणियस्स भिक्खुस्स वत्यए किमंगपुण अप्प- और बहुआयमश भिक्षु को भी बराना नहीं कल्पता है तो अल्पश्रुत सुयस्स अप्पागमस्स? और अल्पाममज्ञ भिक्षु को (पूर्वोक्त ग्राम यावत् - सग्निवेश में) वसना कैसे कल्प सकता है? १०६. से गामंसि वा जाव सनिवेसंसि वा एगवगडाए, एपवाराए, १०६. एक बाड़, प्राकार या द्वार वाले और एक निष्क्रमण-प्रवेश एगनिक्खमण-पवेसाए कप्पड़ बहस्सुयस्स बम्मागमस्स एगा- वाले ग्राम- यावत्-सन्निवेग में अकेले बहुश्रुत और बहु आगमन णिवस्स भिक्षुस्स यथए दुहओ कालं भिक्खुभावं पडिजाग- को वसना कल्पता है यदि बह भिक्षुभाव (सयमभाव) के प्रति रमाणस्स। -मबहार, उ.६, सु. १४-१५ सतत जागृत हो तो। काउसग्ग हेउ ठाणस्स विहि-णिसेहो कायोत्सर्ग के लिए स्थान का विधि-निषेध११०. से भिक्ष वा भिक्खूगी वा अभिकंज्जा ठाणं महत्तए। ११०. भिक्षु या भिक्षुणी यदि किसी स्थान में कायोत्सर्ग से रहना से अणुपविसेज्जा गाम बा-जाव-रायहाणि वा। चाहे तो वह पहले ग्राम-यावत् -राजधानी में पहुंचे, से अणुपविसित्ता गाम बा-जाव-रायहाणि वा से ज्ज पुष्प वहाँ ग्राम-यावस् - राजधानी में पहुंच कर वह जिस ठागं जाम्जा -स-जात्र-मपकवासंताणयं । स्थान को जाने कि यह अंडों-यावत्-मकड़ी के जालों से युक्त है, तो तहप्पगारं ठाणं अफामुयं-जाट-णो परिगाहेज्जा, उस प्रवार के स्थान को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। एवं सेज्जा-गमेण नेयध्वं नाव उदयपमूयाई ति।' इसी प्रकार इमसे आगे की स्थानवणा सम्बन्धी वर्णन - आ. सु. २, अ. ८, उ. १, सु. ६३७ मध्यषणा अध्ययन में निरूपित उवक प्रत कादि तक के वर्णन के समान जान लेना चाहिए। णिसोहियाए गमण विहि-णिसेहो--- स्वाध्यायभूमि में जाने के विधि-निषेध१११. से भिक्खू वा भिवखूणी वा अभिकखेज्जा णिसीहियं १११. भिक्षु या भिक्षुणी स्वाध्यायभूमि में जाना चाहे तो, गमणाए। मे पुण णिसीहियं जाणमा सबंड-जाव माकडासंतागर्य, वह स्वाध्यायभूमि के सम्बन्ध में रह जाने कि जो अंडों, -~~-यावत्-मकड़ी के जालों से युक्त हो तो, १ आ. सु. २, अ, २, उ. १, सु. ४१२-४१७ पर्यन्त ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782