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घरगानुयोग
वहुभुत वसति निवास विधि-निषेध
मूत्र १०७-१११
इमंसि स्खलु गामसि बा-जाव-रावहाणिसि था, महतो इस ग्राम--यावत्--राजधानी में स्वाध्याय-योग्य विशाल विहारभूमि, महतो वियारभूमि ।
भूमि है, मल-मूथ-विसर्जन के लिए विशाल स्थग्विल भूमि है, सुलभे जत्थ पौढ-फलग-सेज्जा-संथारए,
यहाँ पीठ, फलक, गच्या-संस्तारक को प्राप्ति भी सुलभ है, सुख फासुए उछे अहेसणिज्जे,
प्रामुक निर्दोष एवं एषणीय आहार पानी भी सुलभ है,। जो जत्थ बहबे समण-जाव-वणीमगा उवागया उवागमिस्संति जहाँ बहुत-से श्रमग-- पावत्- भिखारी आये हुए नहीं हैं य।
और न आयेंगे अप्पाइण्णा वित्ती, पण्णस्स जिखमण-पबेसाए-जाव-चिंताए। तथा यहाँ के मार्गों पर जनता की भीड़ भी कम है, जिससे सेवं णच्या तहप्पगारं गाम वा-जाव-रायह "णि बा तजो कि प्राज्ञ साधु का निकलना और प्रवेश करना-यावत्-धर्म संजयामेव पासावासं उपसिएग्जा।
चिन्तन करना हो सकता है, अतः इस प्रकार जानकर साधु ऐसे - आ. मु० २, २०३, २०१, सु० ४६५-४६६ ग्राम यावत्-राजधानी में यतनापूर्वक वर्षावास व्यतीत करे। बहुमयस्स वसइ वासाई विहि-णिसेहो-
बहुधुर वसति निवास-विधि-निषेध१०८. से गामसि वा जाव सनिवेसंसि वा अभिनिव्वगए, अभि- १०८. भिन्न-भिन्न वाड़, प्राकार या द्वारवाले और भिन्न-भिन्न
निद्वाराए, अभिनिफ्लमण-पवेसणाए नो कप्पर बहुर सुयम्स निष्क्रमण-प्रवेश वाले ग्राम- यावत्-- सनिवेग में अकेले बहुश्रुत बम्मागमस्स एवाणियस्स भिक्खुस्स वत्यए किमंगपुण अप्प- और बहुआयमश भिक्षु को भी बराना नहीं कल्पता है तो अल्पश्रुत सुयस्स अप्पागमस्स?
और अल्पाममज्ञ भिक्षु को (पूर्वोक्त ग्राम यावत् - सग्निवेश में)
वसना कैसे कल्प सकता है? १०६. से गामंसि वा जाव सनिवेसंसि वा एगवगडाए, एपवाराए, १०६. एक बाड़, प्राकार या द्वार वाले और एक निष्क्रमण-प्रवेश
एगनिक्खमण-पवेसाए कप्पड़ बहस्सुयस्स बम्मागमस्स एगा- वाले ग्राम- यावत्-सन्निवेग में अकेले बहुश्रुत और बहु आगमन णिवस्स भिक्षुस्स यथए दुहओ कालं भिक्खुभावं पडिजाग- को वसना कल्पता है यदि बह भिक्षुभाव (सयमभाव) के प्रति रमाणस्स।
-मबहार, उ.६, सु. १४-१५ सतत जागृत हो तो। काउसग्ग हेउ ठाणस्स विहि-णिसेहो
कायोत्सर्ग के लिए स्थान का विधि-निषेध११०. से भिक्ष वा भिक्खूगी वा अभिकंज्जा ठाणं महत्तए। ११०. भिक्षु या भिक्षुणी यदि किसी स्थान में कायोत्सर्ग से रहना से अणुपविसेज्जा गाम बा-जाव-रायहाणि वा।
चाहे तो वह पहले ग्राम-यावत् -राजधानी में पहुंचे, से अणुपविसित्ता गाम बा-जाव-रायहाणि वा से ज्ज पुष्प वहाँ ग्राम-यावस् - राजधानी में पहुंच कर वह जिस ठागं जाम्जा -स-जात्र-मपकवासंताणयं ।
स्थान को जाने कि यह अंडों-यावत्-मकड़ी के जालों से
युक्त है, तो तहप्पगारं ठाणं अफामुयं-जाट-णो परिगाहेज्जा,
उस प्रवार के स्थान को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर
मिलने पर भी ग्रहण न करे। एवं सेज्जा-गमेण नेयध्वं नाव उदयपमूयाई ति।'
इसी प्रकार इमसे आगे की स्थानवणा सम्बन्धी वर्णन - आ. सु. २, अ. ८, उ. १, सु. ६३७ मध्यषणा अध्ययन में निरूपित उवक प्रत कादि तक के वर्णन
के समान जान लेना चाहिए। णिसोहियाए गमण विहि-णिसेहो---
स्वाध्यायभूमि में जाने के विधि-निषेध१११. से भिक्खू वा भिवखूणी वा अभिकखेज्जा णिसीहियं १११. भिक्षु या भिक्षुणी स्वाध्यायभूमि में जाना चाहे तो,
गमणाए। मे पुण णिसीहियं जाणमा सबंड-जाव माकडासंतागर्य, वह स्वाध्यायभूमि के सम्बन्ध में रह जाने कि जो अंडों,
-~~-यावत्-मकड़ी के जालों से युक्त हो तो,
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आ. सु. २, अ, २, उ. १, सु. ४१२-४१७ पर्यन्त ।