Book Title: Charananuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 692
________________ ६६० चरणानुयोग शम्या संस्तारक ग्रहण का विधि-निषेध सूत्र १३६-१३८ से भिक्खू बा, भिक्खूणी वा मे ज्ज पुण संथारग जाज्जा- भिक्षु या भिक्षुणी संन्तारक के सम्बन्ध में यह जाने कि बह अप्पा-जान-मक्कडा-संताणगं गल्यं, तह पगारं संपारगं अण्डों-यावत् -मकड़ी के जालों से तो रहित है, किन्तु भारी अफासुय-जात्र-णो पनिगाहेजा। है, ऐसे संस्तारक को अप्रामुक ममझकर-- सावत्-ग्रहण न करे । से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा से ज्जं पुषः संथारगं जाणेग्गा - भिक्षु या भिक्षुणी नस्तारक के सम्बन्ध में यह जाने कि वह अप्पड-जाव-मपकडा-संसाणगं लहुयं, अप्पबिहारियं, तहप- अण्डों यावत् -गकड़ी के जानों से रहित है. हल्का भी है, गार संथारगं अफामुयं-आब-णो पडिगाहेज्मा । किन्तु अनानिहारिक है अर्थात् दाता वापरा नना नहीं चाहता हो ऐसे संस्तारक को अप्रासुवः मनझकर-पावत्-ग्रहण न करे । से मिषन वा, सिक्खूणी वा से ज्ज पुण संथारंग जाणेज्जा भिक्षु वा भिक्षुणी संस्तारक के सम्बन्ध में यह जान कि वह अप्पर-जाब-मक्कडा-संताणगं. लहुयं, पबिहारिय, णो बहा- अण्डों यावत् -मवाड़ी के जालों से रहित है, हल्का पी है, यचं, तहप्पगारं संयारगं अफासुयं-जाव-ण पटिगाहेज्जा।। प्रातिहारिक भी है, किन्तु ठीक से बँधा हुआ नहीं है तो ऐसे संस्तारक को आसुक समझकर-यावत्-प्रहण न करे। से भिक्खू वा, भिक्खूणो वा अभिकखेज्जा संचारगं एसित्तए। भिक्षु या भिक्षुणी संस्ता रक की गवेषणा करना चाहे और से ज्ज पुग संथाराग-जागेज्जा-अप्य-जाव-मक्कडा-संताणप, यह जाने कि अण्डों-यावत् - मकड़ी के जालों से रहित है। लहुयं, पारिहारियं, अहाबद्धं । तहप्पगार संथारगं फासुयं हल्का है, पुनः लौटाने योग्य है और नुदृढ़ भी है तो ऐसे संस्ताएसणिज्जं त्ति मण्णमाणे तामे संते पडियाहेम्जा । रक को प्रासुक और एषणीय जानकर मिलने पर ग्रहण करे । -आ. सु.२, अ.२, उ. ३, सु. ४५५ (५) सेज्जासंथारग गहणं विहि-णि सेहो शय्या संस्तारक ग्रहण का विधि-निषेध१३७. नो कप्पह निगंयाण वा निग्गथीण वा पुष्यामेव ओगहं १३७. निग्रंथ निधियों को पहले शय्या-संस्तारका ग्रहण करना ओगिहिता तो पच्छा अणुन्नवेत्तए । और बाद में उनकी आज्ञा लेना नहीं कल्पता है। कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गयीण वा पुष्यामेव ओग्यहं अणुन- निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थियों को पहले भाज्ञा लेना और बाद में शम्या वेत्ता तो पच्छा ओगिमिहत्तए । संस्तारक ग्रहण करना कल्पता है। अह पुण एवं जाणेज्जा-इह खन्नु निग्गंधाण वा निर्गधीप यदि यह जाने कि -निर्गन्ध निग्रंन्थिरों को यहां प्रातिया नो सुलभे पाहिरिए सेज्जा संथारए ति कट्ट एवं णं हारिक शय्या-संस्तारक मुलभ नहीं है तो पहने स्थान या शय्या कम्पह पुवामेव ओग्गहं ओपिहिता तो पच्छा अणुनवेत्तए। मंस्तारक ग्रहण वारना और बाद में अज्ञा लेना वल्पता है। (किन्तु ऐसा करने पर यदि संबतों के और शय्या-संस्तारक के स्वामी के मध्य किसी प्रकार का कलह हो जाये तो आब ये उन्हें इस प्रकार कहे "हे आर्यों! एक ओर तो तुमने इनकी वसति ग्रहण की है दूसरी ओर इनसे कठोर वचन बोल रहे हो) हे आर्यों ! इस प्रकार तुम्हें इनके साथ ऐगा दुहरा अपराधामय ब्यवहार नहीं करना चाहिए। "मा बहउ अज्जो | बिइय" ति बा अणुलोमेणं अग्लोमे- इन प्रकार आचार्य को अनुकूल वचनों से उसे (वसति के पव्ये सिया । ...ब. ज. =, सु. १०-१२ स्वामी को) अनुकूल करना चाहिए। संथारपस्स पच्चप्पण विहि-णिसेहो-- संस्तारक प्रत्यर्पण विधि-निषेध१३८. से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा अभिनेता संथारग' पञ्चप्पिा ५३८. भिक्षु या भिक्षुणी यदि संम्नारक वापस लोटाना चाहे तो णित्तए । से ज्ज पुर्ण संथारगजाणेज्जा-सअंडं-जान-मक्कड़ा- वह संस्तारा के सम्बन्ध में जाने वि अडों यावत् - मकड़ी के संताणग, तहप्पगारं संथारग गो पच्चप्पिणेज्जा। जालों से गुन है तो ऐसे संस्तारक को वापस न लौटाए। से भिक्खू वा, मिक्वणी वा अभिकलेज्जा संथारग पच्चप्पि- भिक्षु या भिशृणी यदि संस्तारक बापस सौंपना चाह, उस णित्तए । से ज्जं पुण संयारग' जाणेज्जा-अपंजाब- समय उस संस्तारक को अण्डो-यावत्-मकड़ी के जालों से

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