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प्रासुक-अप्रामुक स्थंडिल में परठने का विधि-निषेध चारित्राचार : परिष्ठापनिका समिति
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वर्णसि वा, अंबवणंसि वा, असोगवणंसि या, णागवणसि या, वन है, केवढे का उपवन है, आम्रवन है, अशोक वन है, नागवत पुनागवणंसि वा, अण्णयरेसु या तह पगारेसु पत्तीवएसु वा, है, या पुभागधों का वन है, अथवा अन्य भी इस प्रकार के पुष्फोवएसु वा, फलोबएसु वा, बीओवएमु वा, हरितोचएमु स्थण्डिल जो पत्रों, पुष्पों, फलों, बीजो या हरियाली से युक्त हों, वा को उच्चार-पासवर्ण योसिरेज्जा ।
उनमें मल-मूत्र विसर्जन न करे । -आ. न. २, अ. १०, सु. ६५०-६६६
परिष्ठापना के विधि-निषेध-३
फासुय-अफासुय पंडिले परिवण विहि-णिसेहो--- प्रामुक-अप्रासुक स्थण्डिल में परठने का विधि-निषेध३०३. से भिक्खू या भिक्खूणी या से जं पुण यंडिलं जाणेज्जा- ३०३. भिक्ष या भिक्ष णो ऐसी स्थण्डिल भूमि को जाने, जो
सजाव-मक्कडासंताणय तहप्पणारंसि वडिलसि णो कि अण्डों-यावत् - मकड़ी के जालों से युक्त है तो उस प्रकार उच्चार-पासवर्ण बोसिरेज्जा ।
के स्थण्डिल पर नल-मूत्र का विसर्जन न करे। से भिक्खू वा भिक्खूणो वा से जं पुग यडिलं जाणेज्जा-- भिक्षु या भिक्षुणी ऐसी स्थण्डिल भूनि को जाने, जो अण्डे अप्पर-जाव-मक्कडासंताणयं तहप्पयारंसि पंडितंसि उपचार- रहित-पावत्-मकड़ी के जालों से रहित है तो उस प्रकार के सास पोसिरेजा।
स्थ ल पर मल-मूत्र विसर्जन कर सकता है। -आ. सु. २. अ.१०.सु. ६४६-६४७ समण माहणाई उद्देसिय थंडिले परिदृवण विहि-णिसेहो- श्रमण-ब्राह्मण के उद्देश्य से बनी स्थपिउल में परठने का
विधि-निषेध३०४. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से जं पुण पंडिलं जाणेज्जा- ३०४. भिक्ष या भिक्षणी यदि ऐसे स्थाण्डिल को जाने कि गृहस्थ
बहवे समण-माहग अतिही-किवण-वणीमग-समुद्विस्त पाणाई ने बहुत से शाक्यादि श्रमप, ब्राह्मण, अतिथि, फुपण या भिखा-जाब-ससाई-समारम्भ-जाब-तेति, तहप्पगारं पंडिलं रियों के उद्देश्य से प्राणी-यावत् -मत्वो का समारम्भ करते अयुरिसंतरकर-जाय-अणासेवियं, गो उच्चार-पासवणं -यावत्-बनाया है तो उस प्रकार की स्थण्डिल भूमि अपुरवोसि रेज्जा।
पान्तरकृत-पावत्-अनासेवित है तो उस में मल-मूत्र का
बिसर्जन न करे। अह पुणेव जाणेज्जा पुरिसंतरकडं-जाव-आसेवियं, तो यदि यह जाने कि पुरुषालवृत-यावत्--आसेवित हो गई संजयामेव उपचार-पासवणं वोसिरेज्जा।
है तो उस प्रकार को स्थण्टिन भूमि में मल-मूत्र विसर्जन करे । -ना.सु. २, अ.१०, सु. ६४६
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