Book Title: Charananuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 767
________________ सूत्र ३२६-३३२ वचन-समाधारण का फल चारित्राचार : गुप्ति वर्णन [७३५ mmwomar mmmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwmmmmmmmmmm वयसमाहारणयाए फलं वचन-समाधारणा का फल३२६. ५०-अयसमाहारणयाए णं अन्ते । जीवे कि जण या ? ३२६.५०-भन्ते : वा-समाधारणा (वाणी को स्वाध्याय में भली-मोति लगाने) से जीव क्या प्राप्त करता है? उ०-वयसमाहारणयाए वयसाहारणदसणपज्जवे विसोड -वाक्-समाधारणा से वह वाणः के विषयभूत दर्शन हेइ । वयसाहारणसणपज्जबे विसोहेता सुलहबोहि- पर्यत्रों (सम्यक्-दर्शन के प्रकारों) को विशुद्ध करता है। प्राणी के यत्तं निव्वत्तेह, दुल्लहयोहियतं निजरेद। विश्यभूत दार्शन-पर्यवों को विशुद्ध कर बोधि की सुलभता को - उत्त. ब. २६, सु. २६ प्राप्त होता है और बोधि को दुर्लभता को क्षीण करता है । काय-गुप्ति-४ कायगुत्ती सरूवं - कायगुप्ति का स्वरूप३३०. संरम्भ समारम्भे, आरम्भे य तहेव च। ३३०. यतनावान् यति संरन, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त कार्य पवतमागं तु, नियत्तेज जयं जई ।। होती हुई काया के निवर्तन करे । -जुत्त. अ. २८, गा. २५ कायगुत्ती अणेगविहा-- कायनुप्ति के अनेक प्रकार-- ३३१. ठाणे निसोयणे चेव, तहेब य तुथट्टणे । ३३१. खड़े होने में बैठने में, सोने में, विषम भूमि को उल्लंघन उल्लंघण पल्लंघणे, इन्दियाण य जलणे ।। में तथा रूड्डा, खाई वगैरह के प्रलंघन करने में और इन्द्रियों के -उत्त, अ २४, गा. २४ प्रयोग में प्रवर्तमान मुनि कायगुप्ति करे । कायगुत्ती महत्तं कायगुप्ति का महत्व३३२. सहि पलिछिणहि आयाणसोतगढिते आले अस्वोच्छिण्ण-३२. नेत्र आदि इन्द्रिय विषयों से निवृत्त होकर भी कोई बाल बंधणे अमिक्कत-संजोए। तमंसि अबिजाणओ आणाए प्राणी मोहादि के उदयबा आनशे में गूद्ध हो जाता है, वह जन्मसंभो णत्यि सिमि। जरमों के कर्मबन्धनों को तोड़ नहीं पाता, वह विषयों के संयोगों को छोड़ नहीं सकता, मोह-अन्धकार में निमग्न वह अज्ञानी धाने आरमहित को नहीं जान पाता । इस प्रकार उसे तीर्थंकरों की आज्ञा का लाभ नहीं प्राप्त हता। अर्थात् वह आज्ञा का जाराधक नहीं हो सकता ऐसा मैं कहता हूँ। अस्स गस्थि पुरे पच्छा मम्मे तस्स कुओ लिया ? जिसके विषयासक्ति का पूर्व संस्कार नहीं है और भविष्य का संकल नहीं है तो बीच (वर्तमान) में इसके विषयासक्ति का विकल्प कहाँ से होगा? अर्थात् विषय विकल्प नहीं रहेगा। से हु पन्नाणमंते से आरंभोतरए। बही वास्तव में प्रज्ञावान् है, बुद्ध है और आरम्भ से विरत सत्ममेयं ति पासहा। जेणं बंधं वहं घोरं परितावं च दारुणं । पलिछिदिय बाहिरगं च सोतं णिक्कम्मसी इह मच्चिरहि । उसका आचरण सम्यक है, ऐसा तुम देखो सोचो। विषयासक्ति से ही पुरुष बन्ध, घोर-बन्ध और दारुण-परिताप को प्राप्त करता है। अतः बाह्य परिग्रह आदि एवं अन्तरंग राग-द्वेष आदि आस्रवों का निरोध करके मनुषों के दोच रहते हुए निष्कमंदी बनना चाहिये। ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782