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६६८] . चरणानुयोग
निम्न्धी की वस्त्रषणा विधि
सूत्र १६३-१६४
निर्गन्धिनी की वस्त्रषणा विधि-१ [३]
जिग्गंथीए वत्थेसणा विहो
निग्रंन्यो को वस्त्रपणा विधि१६३. निग्गयीए य पाहावइकुलं पिंडबायपडियाए अणुप्पविट्टाए, १६३. गृहस्थ में घर में आहार के लिए गई दुई निर्बन्दी को यदि चेल? समुप्पज्जेज्जा,
बस्त्र की आवश्यकता हो तो अपनी निश्रा ("यह वस्त्र में अपने नो से कप्पद अप्पणो निस्साए चेलं परिग्याहत्तए । लिए ग्रहण कर रही है"--इस मंकल्प) ने वस्त्र लेना नहीं
कल्पता है। कम्पइ से पत्तिणी-निस्साए चेलं पडिमाहितए ।
किन्तु प्रयतिनी की निश्रा (मैं यह वस्त्र प्रवर्तिनी के चरणों में रख दूंगी वह जिसे देना चाहेगी दे देगी। यदि वह रखेगी तो मैं वापस तुम्हें लौटा दूंगी ऐसे संकल्प से) वस्त्र लेना
करुपता है। नो य से तत्थ पत्तिणो सामागा सिया, जे से तत्थ सामाणे यदि वहाँ प्रतिनी विद्यमान न हो तो जो आचार्य, उपाआयरिए वा, उपमाए बा, पयत्तए वर येरे वा, गणो वा, ध्याय, प्रवतंक, स्थावर, गणी, गणधर, गणावच्छेदक (आदि जो गणहरे या, गणावच्छेइए वा, जं चन्नपुरओ कट्ट विहरति, गीतार्थ) वहाँ विद्यमान हो अथवा जिसे प्रमुख करके विचर रही कप्पड़ से तनीसाए चेलं पडिग्गाहेत्तए ।
है उसकी निश्रा से वस्त्र लेना वाल्पता है ।
– ण. ३. ३, सु. १३ णिग्गंथीए वत्थुग्गह विही
निग्रंथी की वस्त्रावग्रह विधि१६४. नियथि च गं गाहाबइकुल पिंडबायपजियाए अणुपबिटु केइ १६४. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट निम्रन्थी को यदि
वत्येण वा, पडिग्गहेण श, कंवलेण वा, पायपुंछोण वा कोई वस्त्र, पाय, कम्बल, पादपोंछन लेने के लिए कहे तो बस्शादि उत्रनिमंतेज्जा,
को "सागारकृत" ग्रहण कर उन्हें प्रवतिनी चरणों में रखकर कापद से सागारकडं गहाय पवसिणिपायमूले ठवित्ता, बोच्चं तया उन्हें ग्रहण करने के लिए प्रवर्तिनी ने दूसरी बार अज्ञा पि जगह अप्पम्प वित्ता परिहार परिहरितए ।
लेकर उसे आने पास रखना और उसका उपयोग करना
कल्पवा है। निगथि च णं बहिया बियारभूमि था, बिहारभूमि वा, विचार भूमि या स्वाध्याय भूमि के लिए उपाश्रम से) णिक्खंति समाणि केइ बस्येण वा, पडिग्गहेग वा, कंबनेण बाहर भिवली हुई निरन्थीबो यदि बोई बस्य पाच, कम्बल, वा, पायपुंछण वा उवनिमंतेज्जा. पप्पड़ से सागारकडं पादपोंछन लेने के लिए कहे तो घस्त्रादि को "सागारकृत" ग्रहण गहाय पवित्तिपिपायमूले टवेता, दोस्वं पि उम्गहं अणुष्ण- कर, उरो प्रवर्तिनी के चरणों में रखकर तथा उसे ग्रहण करने के वित्ता परिहारं परिहरित्तए । – कप्प. उ. १. सु. ४२-४३ लिए उनसे दूसरी बार आज्ञा लेकर अपने पास रखना नौर
उनका उपयोग करना कल्पना है।